गुरुवार, 2 नवंबर 2017

Menopause Pe Adharit Kavita- NAMAK

गुरुवार, 12 अक्तूबर 2017

मूक आवाज: उत्तर-आधुनिक स्त्री-विमर्शी काव्य की प्रवृत्तियाँ ...

मूक आवाज: उत्तर-आधुनिक स्त्री-विमर्शी काव्य की प्रवृत्तियाँ ...: उत्तर-आधुनिक स्त्री-विमर्शी काव्य की प्रवृत्तियाँ उत्तर-आधुनिक स्त्री-विमर्शी काव्य की प्रवृत्तियाँ - डॉ. रेनू यादव


मंगलवार, 14 फ़रवरी 2017

सम्पूर्णता के पश्चात् समाप्ति निश्चित है

पूर्ण रूप से प्रेम करते हुए भी कभी सम्पूर्ण नहीं होना चाहिए अथवा सम्पूर्ण महसूस नहीं करना चाहिए । निरंतर एक कमी, आतुरता, लालसा, जिज्ञासा एवं रोमांस का बने रहना जरूरी है ताकि प्रेम पिघल पिघल कर दीप्तिमान होता रहे क्योंकि सम्पूर्णता के पश्चात् समाप्ति निश्चित है ।
                                   
                                                                - रेनू यादव

बुधवार, 18 जनवरी 2017

राधा का प्रेम और अस्तित्व


आदरणीय सुधा ओम ढ़ीगरा तथा पंकज सुबीर के संपादन में निकलने वाली अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका 'विभोम-स्वर' जनवरी-मार्च 2017 में प्रकाशित -


राधा का प्रेम और अस्तित्व

                                         राधे-कृष्ण, राधे-मोहन, राधा-माधव, राधे-श्याम
             अर्थात् कृष्ण के प्रत्येक नाम के साथ राधा का नाम, जबकि कृष्ण स्वयं विष्णु के अवतार माने जाते हैं, उनकी स्वयं अपनी पहचान है । प्रश्न यह उठता है कि राधा का ही नाम क्यों, रूक्मिणी अथवा सत्याभामा का नाम क्यों नहीं ? कृष्ण का नाम उनकी 16108 रानियों-पटरानियों अथवा ब्रज में गोपियों ललिता, चन्द्रावती, प्रमदा, सुषमा, शीला, वृन्दा आदि, जो कृष्ण से अनन्य प्रेम करती थीं, क्यों नहीं जोड़ा जाता ? क्या सिर्फ इसलिए कि राधा लक्ष्मी की अवतार थीं, अथवा स्वयं कृष्ण की अंश ? गोपियाँ खंडिता नायिका क्यों मानी गयीं और रानियाँ-पटरानियाँ जीवनसंगिनी-कर्मसंगिनी होकर भी क्यों अपनी पहचान नहीं बना पायीं, जबकि भारतीय समाज में पत्नी का महत्त्वपूर्ण एवं सम्माननीय स्थान होता है न कि प्रेमिका का...?
            ये सभी अस्मितापरक प्रश्न हमारे इतिहास और राधा के जीवन-चरित्र को बार बार खंगालने के लिए विवश करते हैं । अतः राधा के प्रेम को समझने के लिए उस समय के समाज में स्त्रियों की स्थिति एवं नैतिकता के मानदंड़ों को समझना अतिआवश्यक है ।
           महाभारतकालीन समाज और कृष्ण का समाज समकालीन था, इसलिए उस समय के समाज में स्त्रियों की स्थिति लगभग एक जैसी थी और नैतिकता के मानदंड भी । उस समय पुत्रियाँ पुत्रों के समान शिक्षा ग्रहण करती थीं, वे पिता पर बोझ नहीं थीं । उनका पुत्रों की भाँति जातकर्मादि आदि होता था, उदाहरण के लिए महाराजा शान्तनु ने गौतम के पुत्र और पुत्री कृप और कृपी का और महाराज अश्वपति ने सावित्री का जातकर्म किया था । चूंकि निम्न वर्ग की स्त्रियों का उल्लेख नहीं मिलता लेकिन उच्चवर्ग की स्त्रियों की शिक्षा पितृगृह में ही होती है । उस समय पुत्र की भाँति स्त्रियाँ भी दान में दी जाती थी । जैसे यदुश्रेष्ठ शूर ने अपनी पुत्री पृथा को अपने फुफेरे भाई कुन्तीभोज को दान में दिया, पृथा का नाम कुन्तीभोज की पुत्री होने के कारण कुन्ती पड़ा ।
-       भट्टाचार्य, सुखमय. महाभारतकालीन समाज. पृ.63-64
          वे पति की कर्मसंगिनी हुआ करती थीं तथा सलाहकार भी । कुंती, सत्यवती, शकुन्तला आदि का नाम एक अच्छे सलाहकार के रूप में उल्लेखनीय है । दुखद स्थिति में विवाहित स्त्रियाँ अपने पिता अथवा सगे-संबंधियों के घर जाया करती थीं । जैसे पांडवों के वनवास गमन पर सुभद्रा का अपने पिता के घर रहना । किंतु अधिक दिनों तक पिता के घर रहना निंदनीय माना जाता था । शकुन्तला, सावित्री, द्रोपदी, गांधारी, रोहिणी, सत्यभामा, सुभद्रा आदि स्त्रियाँ सतीत्व की उदाहरण हैं । कुंती, गांधारी, द्रोपदी, दमयंती, शकुन्तला, सावित्री आदि सशक्त स्त्रियाँ पतिपरायण और पवित्र थीं । कुंती का अपने पति की आज्ञा से नियोग अपनाना, गांधारी का नेत्रहीन पति का साथ देने के लिए स्वयं आखों पर पट्टी बाँध लेना, द्रोपदी का हस्तिनापुर का कोष संभालना, दमयंती का अपने पति नल द्वारा राज्य की उपेक्षा करने पर स्वयं राज्य संभालना, शकुन्तला का अपनी पहचान के लिए दुष्यंत तक पहुँचना और उन्हें पति रूप में प्राप्त करना, सावित्री का यम से सत्यवान को वापस लाना आदि मिथकों से स्पष्ट होता है कि स्त्रियाँ अपना फैसला ले सकती थीं और उस समय पतिपरायण स्त्रियों को ही सम्मान प्राप्त था । ऐसी स्त्रियों का श्राप भी प्रभावशाली होता था । उस समय पुत्र की अपेक्षा पति को अधिक महत्त्व दिया गया जैसे कि देवकी ने कंस के सम्मुख कृष्ण की अपेक्षा वासुदेव के जीवन का चयन किया । स्त्रियाँ सभा में सहभागी होती थीं, उनके आदेश, सलाह, और विचारों का सम्मान होता था । गृहस्थ आश्रम के पश्चात् वे वानप्रस्थ आश्रम में भी प्रवेश करती थीं जिसका उदाहरण स्वयं सत्यवती, गांधारी, कुंती, सत्यभामा आदि हैं । पति के मृत्यु पर सति होने का भी उल्लेख मिलता है और जो स्त्रियाँ सति नहीं होती थीं वे प्रायः पिता के घर रहा करती थीं ।
           किंतु उनपर भी मनुस्मृति का नियम लागू था । विवाह से पूर्व पिता का और विवाहोपरांत पति का अधिकार होता था और इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि इन सबके वावजूद कहीं न कहीं स्त्रियों के प्रति नैतिकता के दोहरे मानदंड भी निर्धारित थे ।
         श्रीमद्भागवत में स्त्री का जन्म पूर्वजन्म के पापों का फल बताया गया है ।
                       मां ही पार्थ व्यापाश्रित्य येsपि स्युः पापयोनयः ।
                        स्त्रियों वैश्यास्तथा शूद्रास्तेsपि यान्ति परां गतिम्।।
-       पाण्डेय, डॉ. दर्शन. नारी अस्मिता की परख. पृ. 11. (महाभारत – महर्षि व्यास – 13/40/14-15)
         नारद-पंचचूडा संवाद में नारी को दोषों की खान कहा गया है ।
-       पाण्डेय, डॉ. दर्शन. नारी अस्मिता की परख. पृ. 11.
          उस समय भी अपहरण, बलात्कार, विवाह, श्राद्ध, उपहारस्वरूप दान में देना, दास्य-प्रथा, नियोग, सति-प्रथा आदि का उदाहरण स्त्री के वस्तुगत मूल्यांकन की ओर संकेत करता है । लड़कियाँ बोझ नहीं थीं किंतु अनैतिक आचरण स्वीकार्य नहीं था । कुंती विवाह के पूर्व गर्भवती होने पर समाज में उपेक्षा के भय से अपने पुत्र कर्ण को स्वयं से दूर करने के लिए विवश हो गईं, जबकि उनके पति पाण्डु पुत्र-प्राप्ति की इच्छा से उन्हें अन्य पुरूषों के पास नियोग हेतु भेजते देते हैं । नियोग का उल्लेख अम्बिका, अम्बालिका, कुंती, माद्री के संदर्भ में भी प्राप्त होता है । बहुपत्नी विवाह, बहुपति विवाह और नियोग हो सकता था किंतु विवाहेत्तर संबंध मान्य नहीं था । पतिव्रता का प्रमाण है कि बलराम देवकी के गर्भ से सीधे चमत्कारिक ढंग से रोहिणी के गर्भ में समा जाते हैं । वहीं सुरक्षात्मक दृष्टि से कृष्ण को रोहिणी के पास नहीं भेजा जाता बल्कि यशोदा के पास भेजा जाता है । वह भी तब जब यशोदा सोई रहती हैं और उनके बगल में सोई लड़की को कृष्ण के बदले बलि के लिए भेज दिया जाता है । इससे ज्ञात होता है कि स्त्री की स्थिति कैसी रही होगी ? माता यशोदा कृष्ण को स्वीकारती हैं और पति के निर्णय को ही अपना निर्णय मानती हैं । पुत्र और पुत्री में समानता थी किंतु पुत्र-आकांक्षा के कारण पुत्रियाँ उपेक्षित हो जाती थीं जैसे कि द्रोपदी । स्त्रियाँ विदुषी थीं उनके सलाह का महत्त्व था किंतु वर्चस्ववादी सत्ता उनके सुझाव की उपेक्षा भी करते थे जैसे कि पुत्र मोह में डूबे धृतराष्ट्र को गांधारी ने समाझाया किंतु धृतराष्ट्र ने उनकी बातों की उपेक्षा की, द्रोपदी को दाव पर लगाए जाने के पश्चात् द्रोपदी चीख चीखकर अपनी रक्षा के लिए सबको पुकारती रहीं किंतु समस्त सभागण निष्क्रिय रहें । अंबा अपने अस्तित्व की लडाई में आत्मदाह कर बैठीं । शकुन्तला गंधर्व-विवाह के पश्चात् भी एक अंगूठी की पहचान से अपनी पहचान बनाने हेतु भटकती रहीं ।
           अतः स्पष्ट है कि समाज और नैतिकता के दोहरे मानदंडों में स्त्री का जीवन यदि उच्च कुल में इतना जटिल एवं दुष्कर था तो मध्यम वर्ग और निम्न कुल में क्या स्थिति रही होगी ? और इन सबके बीच राधा…?
          राधा किसी राजघराने से नहीं थीं । राधा का कृष्ण से बड़ा होना, उनका विवाहेत्तर संबंध और कृष्ण के लिए अपना जीवन समर्पित कर देना किसी चुनौती से कम नहीं रहा होगा । सामाजिक एवं नैतिक वर्जना के बावजूद भी राधा की पहचान उनके प्रेम के चर्मोत्कर्ष के कारण है, अर्थात् प्रेम गली अति साकरी... को उन्होंने विस्तार दे दिया ।
         राधा-कृष्ण पर अनेक ग्रंथ प्राप्त होते हैं, जैसे कि जयदेव का गीतगोविन्द, चंडीदास की पदावली, विद्यापति की पदावली, भट्टनारायण के वेणीसंहार, सोमदेव के यशस्तिलक चम्पू, लीला शुक का कृष्ण कर्णामृत, ईश्वरपूरी का श्रीकृष्ण लीलामृत, बोपदेव का हरि लीला, वेदांत देशिक का यादवाभ्युदय, स्वामी श्रीधर का ब्रजबिहारी, रामचंद्र भट्ट का गोपलीला, चतुर्भुज का हरिचरित काव्य, कृष्ण भट्ट का मुरारि विजय नाटक, कृष्णवल्लभा की उज्जवल नीलमणि, सूरदास का सूरसागर और नंददास का मानमंजरी, बिहारी की बिहारी-सतसई के कुछ दोहे, अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध का प्रिय-प्रवास, धर्मवीर भारती की कनुप्रिया आदि ग्रंथों में राधा के अलग-अलग अनेक रूप दृष्टिगत होते हैं, जैसे मोहक छवि वाली राधा, भोग-विलासिनी राधा, स्वकीया राधा, परकीया राधा, वाक्वैदग्ध राधा, वियोगिनी राधा, प्रेम-रमिणी राधा आदि । राधा किसी नारी का नाम नहीं हैं, यह नारी-जीवन की सम्पूर्ण-गरिमा, तेजोद्दीप्तता, समर्पण, प्रेम की अनन्यता तथा सम्पूर्ण सौन्दर्य, शील और प्रहा के घन-विग्रह का अभिधान है । राधा भारतीय प्रेम-साधना की परिणति का नाम है
-       सिंह, डॉ. शिवप्रसाद. विद्यापति. पृ. 111.
           कृष्ण के सात वर्ष की अवस्था में राधा के साथ प्रथम नेत्रोत्मिलन हुआ था । महाकवि सुरदास जी कहते हैं -
                           औचक ही देखी तहँ राधा नयन बिसाल भाल दिये रोरी ।
                            नील बसन फरिया कटि पहिरे बेनी पीठ रूलति झकझोरी ।
                            संग लरिकनी चलि इत आवति दिन थोरी अति छबि तन गोरी ।
                            सूर स्याम देखत ही रीझे नैन नैन मिलि परी ठगौरी
-       शर्मा, हरबंसलाल, संपा. सूरदास. पृ. 204.
           आयु में राधा कृष्ण से पाँच वर्ष बड़ी थीं, इसलिए स्वाभाविक है कि वे कृष्ण से अधिक समझदार एवं परिपक्व रही होंगी । पूनम दिनकर के अनुसार प्रेम उम्र नहीं देखता, रंग रूप कद काठी, जाति-धर्म, उचित-अनुचित, कुछ भी नहीं देखता । प्रेम निश्चित रूप से एक उच्च भावना है जिसमें त्याग निहित होता है । प्रेम से बढ़कर कर्तव्य का स्थान होता है, प्रेम प्रवाह हो सकता है परंतु उस दुःख की दवा भी प्रेम है
-        शब्द रेखा (प्रेम-विशेषांक) सं. एवं प्रकाशक – विश्वप्रताप भारती (पृ. 16) (प्रेम पर कुछ विचार, पूनम दिनकर)
          सूरसागर के पद्यों के अनुसार राधा-कृष्ण बढ़ती उम्र के साथ-साथ एक दूसरे के पूरक बनते गए । उनकी बाल्य-अटखेलियाँ एवं नोक-झोक की जगह धीरे-धीरे दर्शन, मान-मनुहार, प्रेम, ईर्ष्या आदि ने ले ली और 11 वर्ष की अवस्था में कृष्ण ने रास रचाया, सूरदास के शब्दों में –
                        अपनी भुजा स्याम भुज ऊपरि स्याम भुजा अपने उर धरिया ।
                         यों लपटाइ रहे उर-उर ज्यों, मरकत मणि कंचन में जरिया
-       शर्मा, हरबंसलाल, संपा. सूरदास. पृ. 206.
           विद्यापति ने राधा के सौंन्दर्य का वर्णन करते समय अपना हृदय उड़ेल दिया हैं किंतु जब स्वयं राधा के मुख से उनकी रति-कथा कहलावाते हैं तब उन्हें एक सामान्य नायिका की भाँति चित्रित करते हैं । वे कृष्ण-समागम का वर्णन अपनी सखी से करते-करते कहती हैं -
                        हँसि हँसि पहु आलिंगन देल
                         मनमथ अंकुर कुसुमित भेल
                         जब निवि बन्ध खसाओल कान
                        तोहर सपथ हम किछु जदि जान
-       सिंह, डॉ. शिवप्रसाद. विद्यापति. पृ. 126.
             संयोग-पक्ष का वर्णन राधा-कृष्ण से जुडने वाले समस्त कवियों ने किया है, किंतु सूरदास ही एक ऐसे कवि हैं जिन्होंने राधा-कृष्ण के बचपन से लेकर प्रेम का बढ़ना और पिघलना दिखाया है । नीवी खोलत धीरे-धीरे गाने वाले सूरदास मर्यादा की रेखा पार नहीं करतें, जबकि जयदेव और विद्यापति मर्यादा का उल्लंघन करते हुए दिखाई पड़ते हैं । रसखान ने राधा के सौंदर्य को दर्शाया है । जिससे प्रकृति भी प्रभावित है । उनके सम्मुख अंग, मृग, खंजन, मीन भी लज्जित हैं
-       रसखान-रत्नावली https://books.google.co.in/books?id=4tBUBQAAQBAJ&pg=PA33&lpg=PA33&dq=रसखान के+काव्य+में+राधा&source=bl&ots=
           गाथा-सप्तशतीके कुछ पदों में राधा के प्रेम का चित्रण प्रतीत होता है । सूरदास ने पनघट-लीला, हिंडोल-लीला, फागुन लीला आदि में राधा कृष्ण के संयोगावस्था को दर्शाया है । जयदेव की भोगविलासिनी प्रेम विह्वला राधा, विद्यापति की यौवनशील मोहक छवि वाली यौवनोन्मत्त विरहिणी परकीया राधा, बंगाल के वैष्णव कवि चंडीदास की कोमल उन्मादिनी विरहिणी एवं परकीया राधा, नंद की वाक्वैदग्ध राधा, बिहारी की छैल-छबिली साध्या राधा से कहीं अलग सूरदास की सरल किशोरी मर्यादित संतुलित नागरी राधा हैं । चंडीदास की राधा गोपियों के साथ कृष्ण को देखकर तनिक आशंकित हैं, उन्हें सास ननद का भय सताता है तो विद्यापति की राधा की यौवनावस्था में बदलती क्षण-क्षण की चेष्टाएँ, बिहारी की चंचल राधा का मुरली छिपा लेना सूर की राधा से भिन्नता को दर्शाता है । किंतु आधुनिक युग में राधा का आधुनिक नारी का स्वरूप दृष्टिगत होता है । प्रिय प्रवास की राधा आधुनिक चेतना की संवाहिका, युगीन नारी चेतना (प्रेम, कर्तव्य, त्याग, निष्ठा, शील) का सच्चा प्रतिनिधित्व करती हैं । कनुप्रिया की राधा का तन्मय एवं स्वकीया रूप का निरूपण हुआ है  वे स्वयं को और कनु की स्थिति को एक मानती है ।
                             मेरे स्रष्टा
                              तुम्हारे सम्पूर्ण अस्तित्व का अर्थ है,
                              मात्र तुम्हारी सृष्टि
                              तुम्हारी सम्पूर्ण सृष्टि का अर्थ है
                              मात्र तुम्हारी इच्छा
                              और तुम्हारी सम्पूर्ण इच्छा का अर्थ हूँ
                              केवल मैं ! केवल मैं !! केवल मैं !!!”
-       https://books.google.co.in/books, कनुप्रिया, पृ. 30 (नई कविता के प्रबन्ध काव्य-शिल्प और जीवन-दर्शन),
             पद्मपुराण के अनुसार राधा वृषभानु नामक वैश्य गोप की पुत्री थीं । ब्रह्मवैवर्त के अनुसार राधा कृष्ण की मित्र थीं । किशोरावस्था में उनका विवाह रापाण, रायाण अथवा अनयघोष नामक व्यक्ति से हुआ था, जो कि माता यशोदा के भाई थे । इस प्रकार राधा श्रीकृष्ण की मामी हुईं । इसी पुराण के प्रकृति खंड अध्याय 48 के अनुसार राधा कृष्ण की पत्नी (विवाहिता) थीं । जिनका गंधर्व-विवाह ब्रह्मा ने स्वयं करवाया था । गर्ग संहिता के अनुसार श्रीकृष्ण के पिता नंद उन्हें प्रायः पास के भंडिर ग्राम में ले जाया करते थे, जहाँ उनकी मुलाकात राधा से हुआ करती थी ।
          ध्यातव्य है कि गोपियों को इन्द्रियों का प्रतीक माना जाता हैं, जिन्हें कृष्ण ने वश में करने हेतु लीला किया । वे सभी खंडिता नायिकाएँ थीं, जो कि दूती का कार्य भी करती थीं किंतु राधा कृष्ण के लिए सर्वाधिक प्रिय थीं । राधा का प्रेम साधारण प्रेम नहीं था बल्कि सूक्ष्मातिसूक्ष्म था, उन्हें कृष्ण ने स्वयं अपने अंश से बनाया था इसलिए वे अलग रहें या एक साथ, क्या औचित्य ? इन सभी कथाओं का उद्देश्य मात्र लीला है आदि ।
             किंतु यदि सांसारिक धरातल पर राधा-कृष्ण के प्रेम को देखा-परखा जाए तो ये कथा मात्र एक दैवीय कथा नहीं बल्कि प्रेम की प्रतिमूर्ति स्वाभिमानी स्त्री की कथा है । ये वही राधा हैं जो कृष्ण से क्षण भर दूर होने मात्र से मुर्च्छित हो जाती थीं, मुरली की धून सुनकर बेसुध बरबस खिंची चली आती थीं । जिसके लिए उन्होंने पति, परिवार, समाज, धर्म, नैतिकता को ताक पर रखकर अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया और अपना जीवन दाव पर लगा दिया, वही कृष्ण उन्हें एक दिन छोड़कर चले गए कुछ प्रश्नों, अपेक्षाओं और एक तड़पते दर्द के साथ... ।
             हमारा समाज स्त्रियों के लिए आज भी दोहरे मानदंड तय करता है और उस समय भी करता था । एक ही घर में स्त्री-पुरूष दोनों के लिए अलग-अलग संस्कार और चारित्रिक मूल्य निर्धारित किए जाते हैं । कृष्ण विष्णु के अवतार थे, इसलिए राधा पर कोई आंच नहीं आयी किंतु राधा का दर्द दैविय अवधारणाओं में कहीं दब-सा जाता है । देवी बनाने के चक्कर में राधा की आँखें रेत बनकर समस्त आँसूओं को एक साथ सोख लेती हैं, क्योंकि उन्हें कृष्ण ने वचन दिया था कि मेरे जाने के पश्चात् तुम रोना मत... !
            प्रश्न यह है कि क्या सचमुच राधा कृष्ण की खुशी के नहीं रोईं अथवा उनकी अंतरात्मा ने उन्हें रोने नहीं दिया अथवा एक तड़पता दर्द कि जिससे उन्होंने इतना प्रेम किया वे यूँ ही बिना बताए छोड़कर जा रहे थे, यदि वे नहीं जान पातीं और उनसे मिलने नहीं आतीं तो कृष्ण बिना मिले ही चले जातें... ! हो सकता है वे अपने आपको ठगा-सा महसूस कर रही हों अथवा कृष्ण का जाना वो आसानी से सहन नहीं कर पायीं इसलिए उसी समय से जड़ बन गईं ।
          प्रेम में सुध-बुध खो देना आसान है पर जब मनुष्य छला हुआ महसूस करता है तब उसकी संम्पूर्ण चेतना जाग जाती है । राधा आध्यात्मिक एवं दार्शनिक रूप से जाग गई थीं । कदाचित् इसीलिए संयोग में उन्होंने बंधन स्वयं तोड़ा था पर वियोग में वे स्वतः स्वछंद हो गईं, क्योंकि प्रेम बंधन देता है और वियोग स्वच्छंदता । राधा बंधन-मुक्त हो गईं । कनुप्रिया में राधा के संदर्भ में डॉ. हुकुमचंद राजपाल ने कहा है, कनुप्रिया में राधा एक देवी की अपेक्षा मानवी के रूप में अधिक उभरी है । उसके मानवी प्रेम को भी गहनता के कारण दिव्यत्व की स्थिति प्राप्त हुई है । उसके मिलन श्रृंगार के भी बड़े ही सरस दृश्य अंकित हुए हैं। प्रभाव की दृष्टि से यही कहा जा सकता है कि राधा का चरित्र आध्यात्मिक और श्रृंगारिक स्वरूपों की भूलभूलैयों से बाहर आकर अपनी सनातन उपेक्षा की व्यथा के विषैले घूँट को पचाकर, अपने अस्तित्व की रक्षा की सौम्य चाह प्रकट करने वाली स्त्री के चरित्र के रूप में अंकित हो गया है
-       सुलभा बाजीराव पाटिल – कनुप्रियाः एक मूल्यांकन, पृ 88 (नई कविता के प्रबन्ध काव्य-शिल्प और जीवन-दर्शन) https://books.google.co.in/books
            संदेह नहीं कि राधा ने कृष्ण से उद्दात्त प्रेम किया था । बचपन के सखे का प्रेम विवाहेत्तर संबंध में परिवर्तित हुआ और सदैव एकनिष्ठ रहा । वे आजीवन कृष्ण की प्रतीक्षा करती रहीं । यदि पूर्वजन्म की लेखनी (श्राप) भूल जाया जाए और यथार्थ के धरातल पर उनके प्रेम को स्पर्श करें तो दृष्टिगत होता है कि विछोह की अवस्था में उनका स्वाभिमान और हठ ही उनके जीने का सम्बल बना । संयोगावस्था में रूठ जाने पर कृष्ण उन्हें मनाने के लिए घंटों उनके दरवाजे पर खड़े रहते थे, किंतु वे आसानी से बाहर नहीं आती थीं, यदि आतीं तो अत्यंत मान-मनुहार और प्रतीक्षा के पश्चात्.. ।
          कृष्ण का मथुरा-प्रवास और वहाँ से मिलने न आना कहीं न कहीं स्त्री-अस्तित्व पर लगी वह चोट थी, जिसका उत्तर देना उनके लिए स्वयं भारी था । कदाचित् वह एक विरहिणी प्रेम विह्वला स्त्री का हठ ही रहा होगा कि उन्होंने श्याम का प्रिय पेय दूध पीना छोड़ दिया, शौक-श्रृंगार तो दूर अपने जीवन में दुःख से पुनः उबरने का खयाल भी न रहा । यह हठ ही तो था कि वे 7 मील चलकर स्वयं मथुरा नहीं गईं और पूरे मान के साथ आजीवन प्रतीक्षारत् रहीं ।
          वहीं दूसरी ओर कृष्ण को जैसे ही पता चलता है कि रूक्मिणी उनसे इतना प्रेम करती हैं कि किसी और से विवाह नहीं कर सकतीं, तब वे उन्हें विवाह-मंडप से भगाकर गंधर्व-विवाह कर लेते हैं । वजह चाहे जो भी हो किंतु जहाँ 16108 विवाह हो सकता था वहीं एक और क्यों नहीं अथवा कुछ और क्यों नहीं ? क्योंकि उनसे तो न जाने कितनी ही ब्याही-अनब्याही कन्याएँ प्रेम करती थीं...!
            यदि मात्र महिमामंडन हेतु राधा-कृष्ण के विवाह का प्रसंग न लिखा गया हो और सचमुच कृष्ण के साथ उनका गंधर्व-विवाह हुआ हो, तो राज-काज संभालने के पश्चात् राधा को पत्नी का दर्जा क्यों नहीं मिला । यदि विवाह हुआ था तो फिर पिछले जन्म के श्राप का भला क्या महत्त्व ? यदि मान लिया जाय कि राधा विवाहित थीं, उस समय तलाक नहीं हो सकता था तो भी यह किसी समस्या का समाधान नहीं था, क्योंकि राधा पतिपरायण या पतिव्रता स्त्री नहीं मानी जा सकतीं । इसलिए पति को छोड़कर कृष्ण को अपनाना उनके लिए आसान था । साहित्य में चित्रित राधा के व्यक्तित्व के अनुसार वे प्रेम में ईष्यालु थीं, उन्हें कृष्ण का गोपियों  के साथ क्रीडा पसन्द नहीं था । अर्थात् उनका प्रेम लौकिक विशुद्ध प्रेम था न कि श्रद्धा । जिस प्रकार कृष्ण के गोपियों के साथ कई हिस्सों में बँटने पर भी उन्होंने गोपियों को स्वीकार कर लिया था उसी प्रकार उनकी रानियों-पटरानियों को भी स्वीकार कर लेतीं ? प्रश्न यह भी है कि कृष्ण मथुरा जाने के पश्चात् अपने उत्तरदायित्वों में खो जाते हैं जबकि राधा प्रतीक्षा करती रहती हैं । तो क्या कृष्ण भी उसी वर्चस्ववादी मानसिकता के शिकार थे कि विवाहेत्तर संबंध बनाने वाली अथवा रास रचाने वाली स्त्री से विवाह नहीं करना चाहिए ? वे राधा के वियोग में रो सकते थे, उनकी पीड़ा महसूस कर सकते थे तो फिर ऐसी क्या मजबूरी थी कि वे उनसे मिलने नहीं आ सकें ?   
           वर्षों बाद यदि कोई आता है तो उद्धव । उद्धव से गोपियाँ संवाद करती हैं किंतु राधा नहीं । और कहतीं भी क्या.. वे उस युग में छली गईं जिस युग में बहुपत्नी विवाह और बहुपति विवाह धड़ल्ले से प्रचलित था और कृष्ण स्वयं उसके भुक्तभोगी एवं प्रत्यक्षदर्शी थे । राधा द्रोपदी की तरह आवाज नहीं उठा सकती थीं, और न ही वे इतनी समृद्ध थीं कि एक राजा से गुहार लगातीं, वे सुदामा की भाँति उनके महल में प्रवेश भी नहीं कर सकती थीं क्योंकि कृष्ण विवाह करके किसी और के हो चुके थे । कदाचित् इसीलिए उद्धव से वे कुछ न कह पायीं । उद्धव कृष्ण से मूक राधा की व्यथा सुनाते हैं –
                           तुम्हरे बिरह ब्रजनाथ राधिका नैनिन नदी बढ़ी ।
                            लीने जात निमेष कूल दोउ एते मान चढ़ी ।।
-       शर्मा, हरबंसलाल, संपा. सूरदास. पृ. 210.
            राधा स्वयं से भी आहत थीं, उन्हें उनकी एकनिष्ठता ने छला था... उनका कुछ न कहना उनके अस्तित्व पर लगी चोट थी जिसे न तो वो छुपा सकती थीं और न ही दिखा सकती थीं ।
           कुरूक्षेत्र में राधिका का मिलन एक व्यथित हृदय का मिलन था । न जाने कितने सवाल अपना जबाव खो चुके थे और उत्सुकता व्याकुल हो चुकी थी, किंतु एक भय कि इतने दिनों बाद क्या कृष्ण मिलना भी चाहेंगे ? उन्हें पता है कि कृष्ण को अब राधा की जरूरत नहीं, उनके विरह में सिर्फ राधा जल रही हैं, कृष्ण के विरह की तीव्रता अब पहले जैसी नहीं रही होगी । कृष्ण पधारें भी तो अपनी पत्नी के साथ, शायद राधा इसकी कल्पना भी नहीं की होंगी, वे कृष्ण के साथ एकांत ही चाह रही होंगीं । राधा ने देखा कि कृष्ण अब वो हमारे कृष्ण नहीं, वे अब महाराजा हैं, किसी के पति हैं । एक संवेदनशील स्त्री कभी भी किसी और के पति पर अपना कोई अधिकार नहीं समझती । राधा आहत मन से स्वागत करने वाली बालाओं के बीच खड़ी हो गईं ।
          सूरदास के अनुसार रूक्मिणी गोपियों के बीच राधा को न पहचान कर कृष्ण से पूछती हैं कि उनमें से वृषभानु कुमारी, आपके बालपन की साथी कौन हैं ? कृष्ण बड़े सुन्दर ढ़ंग से कहते हैं –
                   देखो जुवति वृन्द में ठाढ़ी नील बसन तनु गोरी ।
                    सूरदास मेरौ मन बाकी चितवन देखी हरयौ री।।
-       शर्मा, हरबंसलाल, संपा. सूरदास. पृ. 212.
         और फिर सूर की राधा को रूक्मिणी अपने घर लिवा जाती हैं, और माधव से राधा की भेंट करवाती हैं –
                   राधा माधव माधव राधा कीट भृंग गति ह्वै जु गई ।
                    माधव राधा के रँग राचे राधा माधव रंग गई
-       शर्मा, हरबंसलाल, संपा. सूरदास. पृ. 213.
         कृष्ण ने अपने और राधा में भेद मिटाने की बात कही किंतु भावुक राधा के मुख से कोई बोल न फूटे । बिन कुछ कहे ही वे वापस लौट आती हैं ।
         यदि राधा का कृष्ण से मिलन हो गया होता अथवा वे अपने पति को स्वीकार ली होतीं अथवा किसी और से विवाह कर ली होतीं तो कदाचित् राधा भी कहीं गुमनामी के अंधेरे में खो गई होतीं । किंतु राधा कृष्ण से बिछड़ने के बाद भी अपने प्रेम मार्ग पर अटल रहीं । वे कृष्णमय हो गईं । ठगे जाने का एहसास हो या प्रेम का अतुलनीय स्वरूप राधा ने रिश्तों की परवाह किये बिना आजीवन एकाकीपन में गुजार दिया । एक स्वाभिमानी स्त्री का आसक्ति से विरक्ति, स्थूल से सूक्ष्म, आकर्षण से विकर्षण, लौकिक से पारलौकिक में जाना अपने आप में एक चूनौती भरा चयन था ।  वे उम्र में बड़ी थीं, विवाहित थीं, रिश्ते में कृष्ण की मामी भी । यह समाज में किसी भी अवस्था में ग्राह्य नहीं । यदि मान लिया जाय की मामी भी बाल्यावास्था में अपने भाँजे के साथ खेलती थीं, किंतु बड़े होने के पश्चात् कौन उनके रिश्ते को स्वीकारता... ? स्वयं कृष्ण भी नहीं...? कृष्ण प्रेम कर सकते थे विवाह नहीं । क्योंकि आयुनुसार देखा जाय तो कृष्ण का प्रेम किशोरावस्था अथवा लड़कपन का प्रेम प्रतीत होता है और राधा का प्रेम परिपक्वता की ओर अग्रसर । इसलिए प्रेम में राधा को अकेले ही जलना था । राधा का प्रेम विद्यापति के शब्दों में वह कुन्दन है जो दुःसह आँच में तप-तपकर निरंतर चमकीला होता गया 
-       सिंह, डॉ. शिवप्रसाद. विद्यापति. पृ. 125.
           उनके प्रेम की परिपक्वता ही उन्हें अपने मार्ग पर टिके रहने के लिए विवश कर देती है । आश्चर्य नहीं कि उन्हें पतिव्रता न होने के कारण अपमान और पीड़ा का दंश भी झेलना पड़ा होगा, उसके बावजूद भी उन्होंने आजीवन कृष्णमय होकर गुजारा, अपने अस्तित्व को अद्वैत बना दिया ।
          तत्कालीन समाज ने इन्हें कितना देवी बनाया और कितना महिमामंडित किया, यह कहना मुश्किल है । किंतु धार्मिक ग्रंथों और साहित्यकारों ने इनके टूटन-घुटन और चुप्पी को देवी अवश्य बना दिया । आज के समय में अवतारवाद की अवधारणा के कारण राधा सिर्फ इसलिए पूजनीय नहीं हैं कि वे कृष्ण की अंश थीं अथवा लक्ष्मी की अवतार, बल्कि इसलिए पूजनीय हैं कि उन्होंने अपना कंटकाकीर्ण मार्ग स्वयं चुना और समाज के विपरीत जाकर प्रेम की दुनियाँ में अपनी पहचान बनाईं । वरना पितृसत्ता में कृष्ण से पहले राधा का नाम कभी नहीं आता, हो सकता है कि इसमें तनिक सहयोग कृष्ण का महाराजा बनना और चमत्कारिक ढ़ंग से समस्त समस्याओं को हल करने की लोकप्रियता भी शामिल हो । आज के समय में समाज-सुधार के बावजूद भी प्रेमिकाओं को ऑनर कीलिंग, तलाक, मार-पीट का शिकार होना पड़ता है, दोहरे मानदंड़ो का सत्य तो यह है कि राधा जैसी प्रेमिका और सीता जैसी पत्नी सबको चाहिए, किंतु राधा अपने घर की बहू -बेटी के रूप में न हो । अतः ऐसे समाज में राधा युगों-युगों तक भक्तों के लिए भक्ति, प्रेमियों के लिए प्रेम-प्रतीक और अपनी अस्मिता स्थापित करने वाली समस्त नारियों के लिए पथप्रदर्शिका के रूप में पूजनीय एवं सम्माननीय रहेंगी ।
   
******


संदर्भ-ग्रंथ –
1.    शर्मा, हरबंसलाल. संपाः, सूरदास. राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा. लि., नई दिल्ली. सं. पहला 1966, दूसरा 2011.
2.    सिंह, डॉ. शिवप्रसाद. विद्यापति. लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद. सत्रहवाँ 2004.
3.    पाण्डेय, डॉ. दर्शन. नारी अस्मिता की परख. संजय प्रकाशन, नई दिल्ली. प्रथम 2004.
4.    भट्टाचार्य, सुखमय. महाभारतकालीन समाज. लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद. द्वितीय 2003.
5.    सहगल, डॉ. मनमोहन. हिन्दी साहित्य का भक्तिकालीन काव्य. हरियाणा साहित्य अकादमी, पंचकूला. प्रथम 2007.
6.    शर्मा, डॉ. शिव कुमार, हिन्दी साहित्य की युग और प्रवृत्तियाँ. अशोक प्रकाशन, दिल्ली. अठारहवाँ 2003.
7.    नगेन्द्र, हिन्दी साहित्य का इतिहास. मयूर पेपरबैक्स, नोएडा. तैतीसवां 2007.
8.    शुक्ल, डॉ. धनेश्वर प्रसाद. मध्यकालीन कविता संग्रह. विद्यार्थी पुस्तक भंडार, गोरखपुर. 1996.
9.    शब्द रेखा (प्रेम-विशेषांक) सं. एवं प्रकाशक – विश्वप्रताप भारती (पृ. 16)
10.   http://kavitakosh.org/kk/प्रिय_प्रवास_/_अयोध्या_सिंह_उपाध्याय_’हरिऔध’_/_सप्तदश_सर्ग_/_पृष्ठ_-_3
15.   सुलभा बाजीराव पाटिल – कनुप्रियाः एक मूल्यांकन, पृ 88 (नई कविता के प्रबन्ध काव्य-शिल्प और जीवन-दर्शन) https://books.google.co.in/books


- रेनू यादव