गुरुवार, 1 नवंबर 2012

GHURE KA DEEYA

   घूरे का दीया


साल भर घर में

किसी सजावट की तरह पड़ी रही

इधर-उधर, इस कोने, उस कोने

आँचल से बिखेरती रही

ममता, नीति वचन

कथा-कहानियाँ

रामायण महाभारत का पाठ

ये जानते हुए कि

कोई सुनने वाला नहीं है

जमाना बहुत आगे बढ़ चुका है


पर हाँ...

कहीं कहीं काम भी आ जाती हूँ

पोछ देती हूँ कोने में पडा रामायण

बेटे की कूर्सी

साफ करती हूँ आँगन में

जमी काई

बहू की ऊबकाई

नाती का टट्टी

अच्छा लगता है

अपनों के लिए कुछ करना


 
सब करके भी निरर्थक हूँ

बड़बड़ाती रहती हूँ

पता नहीं क्यूँ...

कोई मेरी बात समझता ही नहीं

या मैं समझा नहीं पाती

या मैं कुछ ज़्यादा ही बोलने लगी हूँ

नरक-चतुर्दशी आ गई

साल भर का कूड़ा

घूर पर फेंका जा रहा है

घर में मेहमान बहुत है

काम भी कुछ नहीं

चलो घूरे पर दीया ही

बार लेते हैं

एक जगह बना लेंगे

घूर के पास

और दीया की

रखवाली भी हो जायेगी.

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