मंगलवार, 13 सितंबर 2011

Vaqt

         वक़्त

वक़्त की आँखें
     कमज़ोर हो गई हैं,
जिसे हम
     दिखाई नहीं देते
अथवा हमारा
     दृष्टिकोण संकुचित
जिसे हम
     पहचान नहीं पाते।
क्यों न हम उसके
     चश्में को पोंछ दें
और अपने मन को
     गंगाजल से धो दें,
गंगाजल ?
      ..................
गंगा भी तो अब 
     मैली हो चुकी है
तथा अनैतिकता 
     सार्वजनिक केन्द्र।
तुलसीदास अब
     असीघाट पर
चन्दन घिसने से 
     घबरायेंगे
कि यहाँ राम तक 
     पहुँचेंगे भी या नहीं
पर रावण, पता नहीं
     कब धमक जाये,
सुना था हनुमान
     अमर हैं, 
पर हनुमान ! क्या
     बचाने आयेंगे शिवनगरी ?
बेचारी सति ! आज की
     सतियों के साथ
अपना दर्द भी 
     नहीं बाँट सकतीं,
उन्हें 'मॉडलिंग'
     जो नहीं आती!
सीता तो पहले ही 
     आत्महत्या कर चुकी हैं
अपने प्रिय पति 
     राम की कृपा से,
और राधा को 
     अपने मोहन के 
इंतज़ार के अलावा 
     कुछ सुझता ही नहीं
सभी अपने अपने प्रेम
     की दुहाई देंगे !!
प्रेम तो आज लोगों को 
     ख़ुद से भी नहीं रहा;
ख़ुद को खोकर लोग 
     सृजन, सृजनहार
और संहारक
     सब पा लेते हैं,
पर ख़ुद को पाकर 
     सुविधाओं से 
वंचित होना
     मंजूर नहीं।
वक़्त अपने धुधले 
     चश्में से 
हमें देख 
     परख सकता है,
पर हम 
     भविष्य के गर्भ में 
छुपे वक़्त को 
     पहचानना नहीं चाहतें।

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर - प्रशंसनीय प्रस्तुति - शुभकामनाएं और आशीष

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  2. तब रावण का भी चरित्र था। आज के राम भी भीतर से रावण होने लगे हैं.... इसीलिए हनुमान भी आंख मूंदे बैठे हैं॥ सुंदर कविता॥

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  3. आपको सपरिवार
    नवरात्रि पर्व की बधाई और शुभकामनाएं-मंगलकामनाएं !

    -राजेन्द्र स्वर्णकार

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  4. आप सबको नवरातन की हार्दिक बधाई...

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