साहित्य नंदिनी, नवम्बर, 2020 अंक में 'चर्चा के बहाने' स्तम्भ में प्रकाशित...
पुस्तक
- यीशू की कीलें
लेखक
– किरण सिंह
प्रथम
संस्करण – 2016
मूल्य
– 300
प्रकाशक
– आधार प्रकाशन प्रा. लि., पंचकूला
“मैं ज़िन्दों की बगल में रखा हुआ मुर्दा हूँ” ।
यह
वाक्य ब्रह्म बाघ का नाच दिखाने वाले उस व्यक्ति का है जिसे जीते-जी महानता के नाम
पर मुर्दा बनने के विवश कर दिया जाता है । अंधविश्वास से भरी जनता की आँखें सिर्फ
नाच देखती हैं और उसमें अपना हित तलाशती हैं ! नहीं देखतीं
हैं तो नाचने वाले की पीड़ा और संत्रास ! प्रश्न उठता है कि
नाच दिखाने वाला मुर्दा है अथवा देखने वाला अर्थात् दोनों में से ज़िन्दा कौन है ?
इस
संग्रह की आठ कहानियों में लेखिका ने हाशिए पर खड़े समाज को यीशू की तरह कील के
सहारे लटकते हुए दिखाया है । वर्चस्ववादी सत्ता ने सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक,
नैतिक तथा आर्थिक रूप से हर जगह अपनी कीलें गाड़ रखी हैं और हाशिए पर खड़ा समाज उन
कीलों से लहूलुहान होकर लटका पड़ा है । कहानियों की पीक ‘द्रौपदी पीक’ में द्रौपदी पीक को छूने की जिद्द में वेश्या
की लड़की घूँघरू अथवा नागाओं के शिष्य पुरूषोत्तम, ‘कथा
सावित्री सत्यवान की’ में अपने पति को बचाने के लिए रेनू चौधरी का षड़यंत्रकारियों
के चंगुल में फंसकर उन्हीं को फँसाना, ‘ब्रह्म बाघ का नाच’ में अपनी आजीविका चलाने की खातीर बरमबाघ का नाच दिखाने वाले नरसिम्हा का भगवान
बन कर निष्क्रिय हो जाना, ‘जो इसे जब पढ़े’ में अपना-अपना बखरा माँगने वाले गाँव के लड़कों के खिलाफ जंग छेड़ने वाली
सुभावती हो, ‘यीशू की कीलें’ कहानी में
राजनीतिज्ञों के षड़यंत्रों में फंसी भारती हो, ‘हत्या’
कहानी में नकारे और शकी पति के प्रतिरोध में अपने अजन्मे बच्चे की हत्या करना, ‘देश-देश की चुड़ैलें’ में स्त्रियों के प्रति लोगों
का नज़रिया हो अथवा ‘संझा’ कहानी में
थर्ड जेण्डर को अपनी पहचान छुपा कर रखने की विवशता... सभी पात्र यीशू के समान कीलों पर लटके कराहते
हुए अपना-अपना जीवन जीने को विवश हैं । फ़र्क यह है कि यीशू संघर्ष करने के बाद
ईश्वर पद पर आसीन हो गयें लेकिन इन मनुष्यों को सदैव कीलों पर ही लटके रहना होगा ।
आज
समाज में हाशिए पर खड़े लोग सत्ता के द्वारा ठोके गए कीलों को उखाड़ने के लिए
संघर्षरत् हैं किंतु जाति, लिंगभेद, गरीबी, अशिक्षा आदि कीलों की जड़ें इतनी गहरे
तक धँसी हैं कि वे झकझोरने के बाद भी हिल तक नहीं रहीं । शिक्षा से वंचित लोग कीलों
में जीना सीख गये हैं और हाशिए से उठकर शिक्षीत हुए उच्च पदों पर आसीन महानुभाव वर्चस्ववादी
सत्ता के साथ हाथ मिलाते नज़र आते हैं अथवा वे भी वही करने लगते हैं, जो उनके साथ
हुआ है ! बदलाव की कड़ी में बदलाव करने के नाम पर भौकाल मचाते दिखते हैं, न कि
बदलाव करते हुए । कुछ दिखते हैं संवेदनशील भी, जिन्हें मीडिया के साथ मिल कर बहस
में शामिल हो चीख-चिल्ला कर घर बैठना होता है अथवा सारा
आंदोलन फेसबुक, ट्वीटर तथा सोशल मीडिया पर शुरू होकर वहीं पर समाप्त हो जाता है । ऐसे
लोग प्रतिष्ठित समाज अथवा अंधभक्तों में प्रतिष्ठा प्राप्त कर लहालोट हो जाते हैं
और कीलों पर लटकी जनता अब भी रंक्तरंजित हो कीलों पर ही लटकी रहती है । उनके पास कील ठोकने वालों के खिलाफ कोई सबूत
नहीं होता और उनकी भावनाएँ किसी के लिए कोई महत्त्व नहीं रखतीं । ऐसे में प्रश्न
है कि क्या कीलों पर लटके लोग सदैव ऐसे ही कीलों पर लटके रह जायेंगे...?
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