बुधवार, 28 मई 2014

आ बैल, मुझे मार...

सुधा ओम ढ़ींगरा द्वारा संपादित 'हिन्दी-चेतना' (कैनेडा) के अप्रैल-जून, 2014 अंक में स्त्री-विमर्शी स्तंभ 'ओरियानी के नीचे' में प्रकाशित -

आ बैल, मुझे मार...

        जीवन कर लेता है श्रृंगार, सच है ना कुमकुम से, सईयाँ नैनों की भाषा समझे ना, जिन्दगी कुछ तो बता, आखिर तुझे... कोरा काग़ज रह गया, ये रिश्ता क्या कहलाता है आदि हिन्दी धारावाहिकों के मधुर गाने दर्शकों के ज़बान पर होते हैं । इसमें कोई संदेह नहीं कि ये गाने आज के फिल्मी गाने की तड़क-भड़क और कनफोडू म्यूजिक की अपेक्षा अधिक सूरिले और भावार्थक हैं । अनेक चैनलों पर दिखाये जा रहे नायिका प्रधान धारावाहिकों की पटकथा भिन्न- भिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दों पर आधारित होते हैं, जैसे बाल-विवाह, विधवा-विवाह, बेमेल-विवाह, पर्दा-प्रथा, निम्नवर्ग, मध्यमवर्ग, और उच्चवर्ग की समस्याएँ, मध्यमवर्ग और ग्लैमर की दुनिया का संयोग, भूत-पिचाश, धर्म, नैतिकता, थ्रीलर, क्राइम आदि । सबसे अधिक यदि कोई धारावाहिकों के प्रकार प्रसिद्ध हैं तो वे हैं सास, बहू, बेटी और उनका मायावी संसार । जो एक साधारण मध्यवर्गीय परिवार के नाम पर बड़े-बड़े महलों या हवेली में निवास करने वाली, हर रोज पार्टी में खुशियाँ मनाने वाली दुख की मारी महिलाओं की जीवनगाथा कितनी दयनीय होती है कि उच्चकोटि की किसी डिजाइनिंग साड़ी और आभूषण पहने रो-रोकर आँसूओं की नदियाँ बहा देती हैं । वे इतनी बेबस और लाचार होती है कि हॉस्पीटल में, किसी की मृत्यु में, किसी के खोने में, रोने में, जागने और सोने में एक ही तरह के वस्त्र अथवा विशिष्ट एवं कुछ कम विशिष्ट तरह की साड़ियाँ, आभूषण एवं मेकप में लदी फंदी रहती हैं, फिर भी उनके पास आर्थिक अभाव, मुँह पर सुनाई देने वाले ताने और चाहने वालों के षड़यंत्रों का ताता लगा रहता है । सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि एक अकेली नायिक पूरे जीवन, मात्र परिवार का ही नहीं बल्कि आस-पास के लोगों के  समस्याओं के निवारण का ठेका लिए बैठी रहती है तथा साथ ही एक खलनायिका विभिन्न तरिकों से षड़यंत्रों का जाल बुनती रहती है । नायिका बार-बार फंसने के बाद भी रो-धोकर परिवार के नाम पर विश्वास और स्नेह दिखाकर आ बैल, मुझे मार...सिद्धांत के तहत स्वयं ही ब्लैकमेल होती है, फिर बाद में रोना रोती है कि मेरे साथ इतना अत्याचार हुआ ।
        धारावाहिकों का आरंभ किसी महत्पूर्ण मुद्दे से होता है, लेकिन समस्त परिवेश के बजाय कहानी में एक नायिका होती है और दूसरी ओर एक खलनायिका । एक विलेन नायिका न भी हो तो घटनानुक्रम में एक के बाद एक खलनायक या खलनायिका और उससे उत्पन्न होने वाले समस्याओं को जबरदस्ती घूसेड़कर चमत्कार, जिज्ञासा उत्पन्न करने की कोशिश की जाती है । नायिका और खलनायिका को पहचानने का सबसे आसान तरिका है उनका परिधान । पारंपरिक भारतीय परिधान धारण करने वाली महिला नायिका होती है और पाश्चात्य परिधान धारण करने वाली महिला खलनायिका । यदि खलनायिका भारतीय परिधान धारण करती भी है तो उसका भयानक मेकप खलनायिका का आभास करवा ही देता है, यदि उससे भी बच जाय तो कभी न कभी रूढ़िवादी भारतीय महिला अथवा पाश्चात्य प्रभाव का विकृत्त रूप सामने लाकर उसका अंत किया जाता है । अर्थात् फैशन जगत् के अनुसार बाल कटवाना, मेकप करना, जींस अथवा मिनी स्कर्ट पहनने वाली तथा पूर्णतः आत्मनिर्भर महिलाएँ भारतीय समाज में खलनायिका होती हैं !!
       इन सभी का एक मात्र लक्ष्य विवाह दिखाई देता है । चूँकि विवाह जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई है, लेकिन उसी के इर्द-गिर्द कहानी उलझ कर रह जाती है । धर्म, नैतिकता और संस्कारों का ठेका उस नायिका पर ही होता है, चाहे पति कितनाहूँ दूराचारी अनाचारी क्यों न हो (संदर्भ - डोली अरमानों की, बालिका वधू) । नायिका निरंतर दूराचार को सहते हुए पलकों में आँसू भरकर पूर्ण श्रद्धा के साथ तीज और करवा-चौथ का व्रत तोड़ती है, क्योंकि पतिव्रता नारी की सिद्धी मात्र व्रत रखने और उसे दुनियाँ के सामने दिखाने में है !(संदर्भ – ससुराल सिमर का, गुस्ताख दिल, इस प्यार को क्या नाम दूँ-2), पारिवारिक संस्कार के नाम पर पति का पैर धोकर चरणामृत्त पीने की प्रथा (संदर्भ – इस प्यार को क्या नाम दूँ – भाग 2), प्रेम और अतिशय द्वेष जैसे विरोधाभासी संवेदना (संदर्भ – जोधा अकबर, प्रतिज्ञा, बेइंम्तहाँ), पति के लिए व्रत और प्रेमी के लिए तड़प अथवा विवाह होते ही तत्काल प्रेम का स्थानांतरण (संदर्भ – कसौटी ज़िन्दगी की, पुनर्विवाह, बानी – इश्क दा कलमा), व्यवसायी अथवा हिरोइन (संदर्भ - मधुबाला), पतिव्रता पत्नी, एक संस्कारी बेटी और बहू, एक सुगृहणी (प्रायः सभी धारावाहिकों में) बनने का संघर्ष एक साथ चलता रहता है । जो एक सामान्य नारी नहीं बल्कि कोई रोबोट प्रतीत होती है,  जो कभी पति के लिए, कभी बच्चों के लिए, कभी सास के लिए, कभी परिवार के लिए, कभी सहेली के लिए, कभी नौकरी के लिए, कभी पार्टी में भागती नज़र आती है । वह अपना व्यक्तिगत जीवन दाव पर लगा सबको बचाती है और किसी छोटी मोटी गलती पर भी घर से धक्के मार कर निकाल दिये जाने के बाद भी अपने स्वाभिमान को ताक पर रखकर खुशी खुशी उसी घर में लौट आती है । नायिका चाहे कितनाहूँ शिक्षित हो, आत्मनिर्भर हो, लेकिन ससुराल में सम्माननीय स्थान प्राप्त करने के पश्चात भी ढ़ाक के तीन पात ही रहती है ।  आश्चर्यजनक बात तो यह है कि एक नायिका जिसने परिवार पर न जाने कितने उपकार किए होते हैं, उसपर भरी सभा में किचड़ उछाला जाता है, वह चीख चीख कर सहायता की भीख माँगती है, और उस समय परिवार ही नहीं बल्कि समाज भी चुप्पी साधे तमाशा देखता रहता है । खुशियाँ और दुख की चाभी या तो नायिका के पास होती है या खलनायक के पास । बाकी परिवार गूँगा, बहरा एवं निष्क्रिय होता है ।
        इन सभी धारावाहिकों को घर में बैठे बड़े, बूढ़े और बच्चे अपनी इच्छानुसार बड़े चाव से देखते हैं । एक सामान्य दर्शक को नहीं पता होता कि धारावाहिक की पटकथा क्या है, दृश्य का किस प्रकार दृश्यांतरण हुआ है ? यदि समझ में आ भी जाये तो भी अपनी रूचि से जूडे अंतःसूत्र ढ़ूँढ़ने का प्रयास करते हैं । एक ओर धारावाहिकों में प्रेम, रहस्य, हिंसा, शोषण, छल-कपट का मिश्रण तैयार कर परोसा जाना अगले अंक लिए दर्शक को लुभाता है तो दूसरी ओर स्त्रियों के लिए सबसे लुभावनकारी वस्तु नायिकाओं के कपड़े और गहने तथा यथार्थ से दूर प्रेम का आदर्शीकरण होता है, जो निज जीवन में एक सपना बनकर रह जाता है । कुछेक दृश्यों में प्यार का चर्मोत्कर्ष, विश्वास, जिम्मेदारियों की बड़ी बड़ी बातें होती हैं और फिर अचानक नायिका की किसी सामान्य सी गलती पर आदर्श के इमारत का ढ़ह जाना आदि अस्वाभाविक प्रतीत होता है, जिसके साथ-साथ दर्शक पर संबंधित मुद्दे का प्रभाव कम बल्कि चकाचौंध भरी नकल की लालसा शेष रह जाती है अथवा टाइम पास का एक साधन मात्र ।
        यह सत्य है कि दर्शक पर चलचित्र का तत्काल प्रभाव पड़ता है । किन्तु प्रायः इन धारावाहिकों में मुख्य मुद्दे बारम्बार विवाह, अनावश्यक पार्टियों और धार्मिक पूजा पाठ में दबकर अपना महत्व खो देते हैं । धर्म और नैतिकता के नाम पर नायिका का चरित्र उभरता नहीं बल्कि धर्म नैतिकता के जाल में फंसी तड़फड़ाती मछली की भांति दृष्टिगत होती है । प्रेम का अतिशयोक्तिकरण उसे अनर्गल षडयंत्रों में फंसाती है, उससे वह समझदार नहीं बल्कि बेवकूफ नज़र आती है, जिसे खलनायिका अपनी ऊँगली पर नचाती फिरती है और खलनायिका भी ऐसी कि किसी की हत्या करना उसके लिए साधारण सी बात होती है । ऐसे में विकृत्ति परिवार, विश्वासों की उड़ती धज्जियाँ, रिश्तों के साथ खिलवाड़ आदि से मन विद्रुपता से भर जाता है ।
        मध्वर्गीय उच्चशिक्षा प्राप्त परिवार की कथा हो अथवा निम्नवर्गीय परिवार की समस्या, सबकी समस्या का अंत किसी महलनुमा घर में ही होता है और वहीं से शुरू होते हैं अनेक षड़यंत्र । आदर्श भारतीय परिवार की स्थापना करने के चक्कर में सच से कोसों दूर भारतीय यथार्थ का ड्रामा जनता को आसानी से दिग्भ्रमित कर रहा है । नायिका प्रधान अथवा स्त्री-विमर्श के नाम पर स्त्रियों को सत्ता की ओरियानी के नीचे ही रखा जा रहा है, जिसे स्वतंत्रता, समानता और सद्भावना जैसे प्रजातांत्रिक मूल्यों का भ्रम हो गया है । उसे लगता है कि वह पुरूषवर्चस्ववादी सत्ता एवं मानसिकता से मुक्त हो गयी है, किंतु सत्य तो यह है कि फैशन जगत् की चकाचौंध और अनावश्यक पार्टी, शिक्षित महिलाओं का ताबडतोड़ फैसला लेना आदि निर्णय की स्वतंत्रता दिखाना एक ऐसा चक्रव्यूह है जिसमें अभिमण्यु की भाँति वह स्वयं भी छटपटा रही है तथा समाज की आधी आबादी को आसमान से गिरे और खजूर में लटके वाली स्थिति में फँसा रही है । जिन थोथे मूल्यों एवं मान्यताओं तथा आडम्बरों की चादर को उतार फेंकने में स्त्री-विमर्शियों ने कई सदियाँ गुजार दीं और आज खुलेआम निडरता के साथ खडी भी हो रही हैं, अब उसे ही चलचित्र के माध्यम से मुक्ति के नाम पर नए छद्म के साथ पुनः ओढ़ाया जा रहा है । ऐसी विकृत्त स्वतंत्रता के एक तरफ कूआँ है तो दूसरी तरफ खायी । ऐसी स्थिति में स्त्री-विमर्शी चलचित्र जगत् के समाज, संस्कृति, धर्म, नैतिकता, मनोरंजन, शिक्षा और यथार्थ की गाड़ी हाँकने वालों से यही प्रश्न शेष रह जाता है – कवने नगर लेके चला रे बटोहिया...” ???  

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