सोमवार, 29 अक्तूबर 2012

NAYA ADHYAAY

नया अध्याय

लोहे की गर्म पिघलती सलाखें

जैसे ही धंसी पतली गुफा में

सुलगने लगा तन-मन

और जीवन

एक-एक घात-प्रतिघात से

बन गईं अनेक सुराखें

और उन सुराखों से झांकने लगे

बेदरंग दर्द के चेहरे...

उन चेहरों से लिपटी तरल

लाल चादर

घनघनाते स्पंदन-कंपन-क्रंदन

निचुड़ते गए संतरे से रस

और छिलते रहे नाखूनों की

छिलनी से कच्चे आलू

दरदराते रहे चेहरे को

और भभोरते रहे

सनमाईका जड़े पीठ को

एक के बाद एक

तब तक

जब तक कि

उन्हें मरी हुई न जान पडूँ



सचमुच...

मरी हुई ही पायी थी

खुद को

जंगल झाड़ियों के बीच...

पर न जाने कैसे

जागी जिन्दा लाश

ओढ़े लाल कफ़न

बियावान में



गुफा के मुँह बर्रा रहे थे

जैसे झौंसा गया हो तेजाब से

पिंडलियाँ दरक रही थी

चोट खाए तलवार की धार से

कटे-फटे होठ

हो गए थे बेजुबान

घोघियाई आँखें

निकल रहीं थी आँख से



हाँ...

कभी जिन्दा थी

याद आयी एक धूँधली सी काया

जो हँसती खेलती थी

रिस्ते के अन्य कायाओं के साथ

कौन है वो आदिम स्मृतियाँ

पता नहीं...

बस याद है

एक धूँधली सी जिंदा काया

जिसे चलती सड़क से

जबरदस्ती उठा लिए

कुछ ईज़्जतदार लोग

फिर नोचते हुए कुछ गिद्ध

उड़ते-मँडराते चील कौवे

रेंगते शरीर पर विषैले सर्प

ज़हर उगलते-छोड़ते नाग

निगलते अज़गर

रंग बगलते गिरगिट

रेंगते केचूएँ

बिल बनाते चूहे

हुँवाते सियार

खाते भूखे भेड़िए



काश !!

कोई बुरा स्वप्न होता

रात से बेहतर साँझ होती

लाचारी से बेहतर सुस्ती होती

जीवन से बेहतर मृत्यु होती



सोचा... चलो खत्म कर ले

इस अपमानजनक व्यथा को

इस गिड़गड़ाते जीवन को

जीवन से जुड़ी हर कथा को



पर याद आयी उन स्मृत्तियों की

और उन स्मृत्तियों को जी-जान से

सजोने वाले जीवन की

पर ...

कैसे दिखा पाऊँगी उन सबको

अपना मुँह

कैसे बता पाउँगी अपनी तकलीफ

खुद तो सहन कर लुँगी

असहनीय पीड़ा को

लेकिन कैसे सह पायेंगे

मेरी पीड़ा से पीडित

रहने वाले लोग

कैसे...?



तभी खयाल आया

मुसीबत के समय मुझे

कैसे संभालती थी माँ

मेरे जागने से जागते थे पापा

हँसने से हँसता था भाई

रोने से रोती थी बहन

क्या जी पायेंगे वे लोग मेरे बिना

न जाने कहाँ-कहाँ ढूँढते होंगे

जो एक पल भी न रह पाते थे देखे बिना

क्या मैं स्वयं मर पाऊँगी उनके बिना



नहीं...

नहीं मर सकती...

जी सकती हूँ उन्हें देखकर

मर सकती हूँ उन्हें देख

न जाने कौन सी हिम्मत

मेरे दिलो दिमाग में छाई...

हिम्मत बटोर उठने लगी

दो खंभों के बीच से

सरकते छत की तरह

झोलरी बन झूलने लगा गर्भ

सरकने लगीं अंतड़ियाँ

बहने लगा कौमार्यपन का दुख



देखती हूँ सबकी निगाहें

मेरे संरक्षक थे बेवश

अफ़सोस है उन्हें

क्यों नहीं बन सके

ससमय रक्षक

हजारों सवाल

मेरी ही देह पर...

हजारों उँगलियाँ

मेरे ही चरित्र पर...

हजारों सूर्खियाँ

मेरे ही शक़्ल पर...

आखिर क्यों...



क्यों नहीं उठती

उँगलियाँ उन पर...

लोग कहते हैं

इसका रेप हुआ है

क्यों नहीं कहते लोग उन्हें

इसने रेप किया है

क्यों कहते हैं हमें लोग

बलात्कार की शिकार

क्यों नहीं कहते लोग उन्हें

बलात्कारी...हैवान...



घर से लेकर पुलिस, समाज

और दुनियाँ के सामने

मैं एक सूर्खी हूँ

लेकिन...

अपनी नज़र में

मैं एक सपनीली लड़की

जिसके सपने काँच की तरह

टूट गए, और

उसकी कीर्चियाँ

चुभ रही हैं मेरी तन-मन

और जीवन पर



सुना है... वे ईज़्जतदार लोग

पकड़े गए

जिन्होंने मुझे

जीते-जी भेज दिया है

रौरव नरक में

कुछ सालों की सज़ा काट

निकल जायेंगे वे जेल से

पर...



पर...

क्या मैं सम्भाल पाऊँगी

अपने इस दर्द को

क्या मेरे गर्भ की दीवारों

पर बनें

सलाखों की निशान

मिट पायेंगे

क्या ज़हरीले नागों के

स्पर्श से कभी

मैं मुक्त हो पाऊँगी

क्या मैं उठ पाऊँगी इस

नरक से

अगर उठ भी गई तो

क्या समाज

उबरने देगा मुझे

इस दर्द की नदी से



ईज़्जत के पंख क्या

देह का पर्याय है

या मर्दजात की ख़ैरात

जिसे जब चाहा मरोड़कर

बिखेर दिया

ईज़्जत तो सद्गुण और

दुर्गुणों से बनता है...

फिर वे जन्म से ही ईज़्जतदार क्यों

और हम उनकी अमानत कैसे

वे ईज़्जतदार...

और हमारी ईज़्जत लुटती है... कैसे

वे लूटकर भी नहीं लुटते

हम बचाकर भी लुट जाते हैं... कैसे

क्या एक सुरंग

निर्धारित कर सकती है,

ईज़्जत और बे-ईज़्जत की सीमा ?



क्या कूसुर था मेरा

जो बिना ग़लती के सजा मिली मुझे

अधखिले फूल को

मसल दिया

लेकिन...

नहीं



नहीं...

अब मुरझाना नहीं है

ये माना कि मसले जाने के बाद

कुछ खुशबू उड़ गयी

मेरे पखुँड़ियों से

मुरझाते हुए भी

उड़े रंग रंगीनियों से

लेकिन अब नहीं



समेटूँगी मैं फिर से

अपने खुशबूओं को

भरूँगी फिर से

बेरंदरंग जीवन में रंग

दर्द को बनाऊँगी हिम्मत

गर्भ में भरूँगी ममता

रिस्तों को आस्था

स्मृत्तियों को श्रद्धा

जीवन को प्रेम

और प्रेम से बनाऊँगी

एक संसार

जिससे शुरू हो सके

जीवन का एक

नया अध्याय...

शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2012

MANUSHYA AUR PASHU

मनुष्य और पशु




मनुष्यों में स्त्री

और

पशुओं में बैल दुखी होता है

जब चाहो बैल के मुँह

पर जाबा लगा जोत दो खेत

ताकि वह चर न सके



गाय बैल जन्म दे

लोग दुखी होते हैं

गाय गाय को जन्म दे

पूजा होती है

लेकिन स्त्री ???



दुधारू गाय की

पूजा सर्वत्र होती है

दुधारू माँ भी

सम्मानित है कहीं-कहीं

गाय बिसुक जाने पर

अगले के उम्मीद में

खिलाया जाता है

लेकिन

स्त्री के सूख जाने पर

उसे बैल की तरह

जोता जाता है.



दुधारू गाय की लताड़ भली

किन्तु दुधारू औरत की....???

सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

Pahchaan

      पहचान





मछली का पेट फटा

निकली अँगूठी

तब जाकर कहीं पहचान पाये

दुष्यंत शकुंतला को



हाय रे विडम्बना !

पत्नी को पहचानने के लिए

अंगूठी का सहारा



क्या प्रेम, विवाह और बिस्तर

सब अनहोनी थी...

या

गर्भाधान भी कोई

था चमत्कार !!!

जो अनजाने से ही

चू गया गया गर्भ में

और पुत्र भरत

बन गया यथार्थ...



बालक मोह लिया विस्मृत्ति में भी

लेकिन पत्नी याद नहीं आयी

जिसने अपने भावनाओं से

सींचा था प्रेम का खेत

और रोपा था जीवन का बीज



अँगूठी...

जो धड़कनों वाली नली से

गिरकर मत्स्य-गर्भ में जा फँसी

और निकली तो

अपने हृदय की धड़कनों की याद आयी,

पहचान गए दुष्यंत !

अपना लिया शकुन्तला को



किन्तु आज की शकुन्तला

के पास

ऐसी कौन सी है पहचान ?

सिवाय डी.एन.ए. टेस्ट के !!



पहचानो दुष्यंत पहचानो

बिना अँगूठी के

कौन सी शकुन्तला तुम्हारी है, और

कौन सा भरत.... ???

ऊफफफफफ....

बदल गया इतिहास...

सोमवार, 8 अक्तूबर 2012

ARDHAANGINI


   अर्धांगिनी

मैं तुम्हारी अर्धांगिनी हूँ
आधा अंग
यानी प्रेम भी आधा
लेकिन...
तुम मेरे सम्पूर्ण हो
और सम्पूर्णता में ही प्रेम है...

बुधवार, 3 अक्तूबर 2012

Surrogate Mother

      सरोगेट मदर


ब्रह्मचारी हनुमान ने

लाँघा जड़-जंगल, पर्वत-पहाड़

नदियाँ और समुद्र...

न जाने कब गिर गया

तन का एक बूँद

गर्भवती हो गई मत्स्य

पुत्र माता का ही रहा…

नियोग से जन्मे पांडव

कुन्ती के कहलाए

और होकर रह गए माँ के…

देवकी के गर्भ से लुप्त

बलराम रोहिणी के गर्भ

में समा गए

और रोहिणी के हो गए

लेकिन...



लेकिन तुम

क्या मेरे हो…?

मेरे हो

और नहीं भी...



जब किया था फैसला

तुम्हें अपनी गहरी गुफा में

शरण देने का...

तब नहीं पता था

तुम मेरे गुफा के अंग

बन जाओगे

और धड़कोगे

मेरी धड़कने बन...

हमने सोचा था

इस अंधेरी गहरी

गुफा में तुम

जैसे तैसे

समय काटोगे

और चल दोगे

मेहमानो की तरह

बिना पीछे मुड़े...



पर हाय

मैं...

मैं मेज़बान

गलत निकली

अपने मेहमान से ही

दिल लगा बैठी



तुम्हारा बीजारोपण

सहर्ष स्वीकारा मैंने

किसी परखनली से आकर

गिरे मेरे काँच के घड़े में

हँसी थी मैं

बूँद ही तो हो

क्या औकात की डिगा दे

मुझे मेरे लक्ष्य से

पर

इतना जरूर जानती थी

कि तुम सिर्फ जिम्मेदारी ही नहीं

किसी की अमानत भी हो...



बीज से जब तुम अंकूर बनने लगे

मैंने महसूस किया सींचे गये

उगते अंकूरित खेतों की

गंध को

सोंधी हो गयी थी मैं...

तुम्हारी सुगंध इतनी

चढ़ गई

कि दुनिया का कोई सुगंध

रास न आया

उबकाई, जम्हाई, महकाई, महमहाई

के बीच

न जाने कब तुमसे जुड़ने लगी

बोहनी का खेत बन गया गर्भ

कहीं सूख न जाए

खाद डालती थी

कहीं दरक न जाए

पानी से सींचती थी

कहीं गीली न हो जाए

पानी बंद करती थी

कहीं धूप न लग जाए

छाँव देती थी

कहीं ठंड न लग जाए

सेंकती थी

कहीं कोई रोग न लग जाए

दवा छिड़कती थी

खयालों के ख़याल में

मैं नादान....

भूल बैठी

कि खेत तो अपनी है

पर बीज बान्हे का है.



कैसी विडम्बना है

घर में

आये थे तुम

पराए बनकर

रहने लगे मेहमान बनकर

साथ जुड़े प्रेमी बनकर

जाओगे मेरे अपने बनकर



पता है तुम्हें

एक सूई भी अपनी देते हुए

दिल दुखता है

कि पता नहीं

वापस आयेगा कि नहीं

फिर तुम तो मेरे जीवन

का हिस्सा बन गए हो...

जब पहली बार लात मारी

थी तुमने मेरे अंदर

उठा लिया था पूरा आकाश

मैंने सर पर

कोई है मेरे अंदर

जो बाहर की ओर झांकना

चाहता है

तुम मेरे अंदर होते

और बाहर भी

मेरे खाने पर तुम खाते

मेरे सोने से सोते

मेरे नाचने से नाचते

और बतियाने से बतियाते

फिर कैसे हो गए मुझसे अलग



तुम जिन्स किसी और के जरूर हो

पर क्रिया-कलाप,

भाव भंगिमा तो मेरे हो

कुछ तो मिलेगा मुझसे

क्योंकि...

कहते हैं गर्भवती महिलाओं के अंदर

बड़ी शक्ति होती है

वह जैसी होगी

बच्चा वैसा ही होगा

इसलिए तो सलाह

देते हैं डॉक्टर

भला देखो, भला सुनो, भला बोलो

भला खाओ

और बच्चे को दुलराओ...

देखा नहीं था अभिमन्यु को

सुभद्रा की कोख में ही

जान लिया था चक्रव्यूह का भेद

क्या तुम भी जान पाओगे

कभी तुम्हारे चक्रव्यूह को



मुझे गर्व है

तुम बनोगे अपनी

माँ-बाप की तरह

लेकिन सिखोगे वही

जो इस समय

मैं तुम्हें सिखाऊँगी

रोहिणी की तरह...



कुछ नहीं लगोगे मेरे

पर कुछ तो रहोगे मेरे



हाय !

मैं न देवकी बन सकी

न ही यशोदा

क्या कहूँ कि तुम मेरे कौन हो

दुनिया के ताने सुनकर भी

जगह दी तुम्हें

अपने जीवन में...

काश ! तुम विभिषण की तरह

उबटन से बने होते

तो इतना तकलीफ न होता

तुम्हें महसूस किया

अपनी जान बनाकर

तुम्हें चाहा अपनी

शान बनाकर

अब अलग कर रही हूँ

किसी और की पहचान बनाकर



क्या पता कल को तुम

मेरे सामने आओ न आओ

आओ भी तो किस रूप में आओ

बस आखिरी बार चूम लेने दो

मुझे जी भरकर देख लेने दो

मुझे प्यार करने दो

मेरे अजस्र प्रवाहित धारा को पी लो

एक बार मुझे माँ कह दो

बस एक बार मुझे माँ कह दो

कम से कम... एक बार मुझे माँ...

सोमवार, 1 अक्तूबर 2012

Chhaati Ka Dard

      छाती का दर्द



मन से जूड़े मेरे दो चाँद

जो सूरज को जन्म देते समय

चमक उठते हैं सूरज की तरह

और फूट पड़ती हैं

ममता की किरणें

और फिर...

बड़ा कर देती हैं

उस नन्हें-से जीव को

अपने दोनों चाँद से लगाकर ...

जाग उठती है आकाश की छाया

और उस छाये में

फल-फुल उठते हैं

पेड़-पौधे, जीव-जन्तू

और समस्त संसार



संसार की परखनली में

बनते-बिगड़ते रिस्तों के बीच

किसी के प्रेम से धड़क उठती हैं

आकाशगंगा-सी धड़कने

और...

जीती हैं जिलाती हैं प्रेम को...

सिर्फ प्रेम ही नहीं

किसी के कराहने से

कराह उठती हैं ये छाती

लेकर जटाधारी के जटा की विशालता

और बहाती हैं करूणा की गंगा



पर... आज जब ये छाती कराह रही है

तब...

तब कोई नहीं हर पा रहा इनका दर्द

और न ही जान पा रहा दर्द की वजह



कल तक ये मेरा गुमान बन

मेरी शोभा बढाती थीं

आज इसकी ही वजह से

मैं सिकुड़ रही हूँ हीनतम दर्द से

जिसे साधारणतः किसी के सम्मुख

बयाँ नहीं सकती...

नहीं बता सकती अपनी पीड़ा

सूनापन... घेरापन...

घावपन... परिवर्तन...



हीन तो तब भी महसूस करती थी

जब लोग इसे

भेड़िये की निगाह से देखते थे

या

रोटी देख रहा हो जैसे भूखा कुत्ता

ललचाई आँखों से

या

मेरी खूबसूरती का अंदाजा

लगाया जाता जब कभी

मेरे तंग चोली और

चोली के अंदर छिपे

गोल-गोल उभरे फलों से

लेकिन अब...



जैसे रख दिया हो किसी ने

तपते लोहे का गोला

सीने पर...

चबन्नी-सा यह गोल व्याधि

कैसे फैलता गया

लसिका ग्रंथि तक

पता ही नहीं चला...

कब हजारों सर्प गेडूली बाँध

बैठ गए चाँद पर दाग की तरह

और विषैले फूफकार से

सुलगाने लगे शीतल चाँद को...

सुलगते भूसे से यह तन

कब दहकता कोयला बन गया

समझ में ही नहीं आया

बर्राने लगा मेरा चाँद...



कहाँ चली गयी चाँद की शीतलता

उन्नत शोभा और हृदय का गर्व

बस एक ही टीस उठती है

मुक्त कर दो

मुक्त कर दो किसी भी तरह से

मुक्त करो इस दहकते दर्द से

............

.............

अब...

नहीं दिखता किसी का प्यार

नहीं महसूस होता स्पर्श

नहीं उमड़ती ममता

बस समझ में आता है तो

मात्र टीस, बोझिल दर्द

छाती का दर्द



मैमोग्राम से लेकर

सर्जरी तक के सफ़र में

अटकी रही जान

हाय कैसे अलग कर दूँ

अपनी ही जान को

अपने इस असीम सौंन्दर्य से

वह भी जानबूझ कर...

पेड़ से पत्ती टूट सकती है

फल गिर सकते है

डार टूट जाये

लेकिन जड़ कैसे बर्रा-बर्रा कर बिखरे...

इस तन का हर हिस्सा मूलधन है

फिर कैसे सूद मान अलगा दें...



सृष्टि के उदय से ही

इसके सम्मुख नतमस्तक होते रहे हैं

आम आदमी से लेकर शूर-वीर तक

रिस्तों का हर ढ़ाचा जूड़ता है यहीं से

और...

इसके झीने पर्दे में छिपे

हृदय से...

कभी इसे ढ़का गया ईज्ज़त के नाम पर

कभी उघाड़ा गया हक़ के नाम पर

कभी सराहा गया सौंदर्य के नाम पर

कभी दुत्कारा गया अश्लीलता के नाम पर

पर... हमेशा सराहा गया ममत्व के नाम पर

लेकिन...

इन सबके बावजूद

आकर्षण का प्रमुख केन्द्र यही रहा

जिसे आज स्वयं से

बिलगाकर मैं इसे अपने ही घर से

बेघर कैसे कर दूँ...



जानती हूँ...

सर्जरी से दर्द-मुक्त तो हो जाऊँगी

पर नहीं मुक्ति मिल पायेगी

अपने चाँद के खोने के दर्द से

न तो अब बह सकेगी इससे

वह अमृत धारा

न ही जी पायेगा इससे

नवजात शिशु...

नकली प्रसाधनों से कदाचित्

शरीर की शोभा तो बढ़ जाए,

पर

नहीं मिल पायेगा मेरा खोया सौंदर्य

जिसे प्रकृति ने स्वयं अपने हाथों से

सजाकर भेजा था...



अब लुट चुका है मेरे मन के कोने से

मेरा चाँद

लोगों की कनखियाँ कहती हैं

बिमारी खत्म हुई...

लेकिन

मुझे लगता है

इस दर्द की मुक्ति के साथ-साथ

मेरी आत्मा का कोई हिस्सा भी खत्म हुआ

और... बचा है किसी कोने में

खालीपन... सूनापन...

घावपन... परिवर्तन...

अब उस खालीपन में भरती रहती हूँ

उन्नत हौसला, प्रेम, और धैर्य

सब कहते हैं मैं सपाट मैदान बन गई हूँ

पर कौन समझाये....

इस चाँद के रौशन दिये तले

ममता का समुद्र अब भी उमड़ता है...