सोमवार, 21 मई 2012

B.P.YADAV Ki Dayari-Svarup Lambi Kavita


सोचा... सलाम लिख दूँ
सोचा... सलाम लिख दूँ.

आगे गहन अंधेरा, कोई मिलने वाला मेरा
इंसानी फितरत, पीछे मुड़कर देखा
रिस्ते चले आ रहे पास, पर नहीं कोई साथ
नहीं पकड़ना चाहता, कोई खाली हाथ
मैं बुद्घ या खुसरो तो नहीं
सोता छोड़ कर चल दूँ
कुछ कर सकता तो, दिल का बयान लिख दूँ
सोचा... सलाम लिख दूँ.

कोई पलकें बिछाए बैठा है, इंतज़ार में
आतूर है पनाह पाने को, या फिर मेरे प्यार में
खींच रहें लोग मुझे मोह-रश्मियों से
भटकता है मन कहीं व्यर्थ कस्तियों में
दो राहे पर कदम डगमगाए, लौटाना सम्भव नहीं
वक्त आगे बढ़ता है, पीछे नहीं
क्यों न हाथों को जुम्बिश दूँ, और उनका ही कलाम लिख दूँ
सोचा... सलाम लिख दूँ.

लम्बी कतार, साँसे हैं कम
शुक्र है ऐ दाता, है मुझमें अभी दम
फर्ज़ अदा न कर सका ज़िन्दगी का
मुँह छिपाए सफ़र पूरा किया मुफ्लिसी का
अब और एहसान मत करो, ऐ अपनों !!
करने दो ज़रा दीदार दाता-ए-बन्दगी का
इस कलमकस को पहले, अलविदा-ए-शाम लिख दूँ
सोचा... सलाम लिख दूँ.

जिस आँगन में, दहलीज़ पर
पैदा हुआ, जवान हुआ
शिक्षा पाई, संस्कार मिला
प्यार मिला, बेईमान हुआ
कुछ कर्ज़ है मिट्टी का
कुछ फर्ज़ है मेरा
कल के ऊपर छोड़ दिया
वक़्त गुजरा, मुँह मोड़ लिया
आज देखो ये हालत
              मेरे जहान वालों !
उस मिट्टी ने ही मुझको छोड़ दिया
रिसता है दर्द जुदाई का, अभी भी फटे कलेजे से
क्यों न सारी ताकत से, उसकी ही दास्तान लिख दूँ
सोचा... सलाम लिख दूँ.

मजबूरियाँ अंग बन गईं जीवन की
देती हैं ठोकरें दर-ब-दर की
मगर इतनी भी बेरूखी क्यों, ऐ दाता !
मुहलत भी नहीं दी, सफाई का
माँगा था हमने भी ऐसा क्या
             तुमसे ऐ रहमों करम !
दे नहीं सका, दे दिया भरम
चाँद ही गर वादा था, कोई बात न थी
दरिया का रूख मोड़ देता
पहाड़ों का सीना चीर देता
बहता जब पसीना आदमी का
मजबूर कर देता तेरी ख़ुदाई को
तू ख़ुद ही चाँद-सितारे झोली में डाल देता
वक़्त ने बदला रूख किस बेरूखी से
दोहराया वही इतिहास, तोड़ा गुरूर किस बेवफाई से
तड़पाया बहुत मेरी रूहानी मजबूरियों को
गिला क्या करूँ, कैसे ख़ुद की जुदाई से
क्यों न, सारी दुनियाँ का एहसान अपने ही नाम लिख दूँ
सोचा... सलाम लिख दूँ.

मुकम्मल जहाँ क्या, छोटी सी दुनियाँ भी न बसा सका
मिलते गए हमसफर, सफर चलता रहा
कुछ मुझसे छूट गए, कुछ ने मुझको छोड़ दिया
एक छलावा था, तमन्ना-ए-दिल हक़ीकत न बन सकी
मजबूर थे हम, लोग भी बेबस रहे होंगे
जिनसे हाथ मिलाकर चला, निगाहें न मिल सकीं
ऐसी मुफ्लिसी भी क्या, ऐ दोनो जहाँ के मालीक
हमारी उजरत तेरी इबादत न बन सकी
ऐसी शिकस्त, कलेजा फट जाए बन्दे का
क्यों न दर्द-ए-ग़म कुछ तेरे भी नाम लिख दूँ
सोचा... सलाम लिख दूँ.

मैं एक मुसाफिर हूँ दुनियाँ के मयखाने का
जीवन मदिरा पी गया तब रंग चढ़ा दीवाने का
अब और नहीं है बाकी, कुछ इल्म करो साकी
दिल अभी भरा नहीं, दीवाना अभी मरा नहीं
ऐसी हालत थी कभी, तेरी चाहत की कभी
काबा से गुज़रता कोई सोचा काफिर लगता है
सरेआम मुँह छिपा चला जिनसे
क्यों न उनको ही बदनाम लिख दूँ
सोचा... सलाम लिख दूँ.

आने लगे हैं घने साए, आहट होने लगी है
रोशनी में भी अंधेरा है, साँसों की ठंडक खोने लगी है
कुछ याद नहीं अब, मयकशी परवान होने लगी है
पैग़ाम उनका आया है, शायद वे करीब ही हैं
बेताब धड़कते दिल की, मेहनत साकार होने लगी है
इन्तज़ार जिसका करता रहा, सारा आलम ता-उम्र
उस महबूब की आहट मिलने लगी है
                शाम-ए-इन्तज़ार होने लगी है
अनोखा होगा हमारा मिलन, जरा उनको आदाब लिख दूँ
सोचा... सलाम लिख दूँ.

देखा मंज़र, गुलिस्ताँ, डूब जाने के बाद
थम सका न बारिस का शोर, रूख्सत हो जाने के बाद
करम था उनका, फ़क़त कुछ वक़्त पहले
शुक्रगुज़ार हैं हम, कुछ शबनमें रक्त के बदले
मत उदास हो ऐ दिल ! सिला गर ये ही था
              ता-उम्र कोशिश के बदले
दो-चार बूँदे ज़हर जैसी, जो टपकती हैं सीने में
              एहसान-ए-ख़ुदा के अहले
आखिर कब बदलेंगे रास्ते मंज़िल का
साँसें कमज़ोर हो रहीं, टूट रहा भरोसा इस दिल का
इससे पहले कि पड़ जाए मेरे नहले पर ख़ुदाई-दहले
क्यों न अपनी शिकस्त का एहतराम लिख दूँ
सोचा... सलाम लिख दूँ.

बावक़्त सब ठीक है, सुनाने को तूती नक्क़ार खत्ने में
गुजस्तां वक्त की दास्तान, नवासाए मुशरफ के जमाने में
करिश्में आज आम हो जायेंगे, बेपरदा सरेआम हो जायेंगे
ख़ुदाई ख़ौफ न खाएगा, बन्दे बदनाम हो जायेंगे
रू-ब-रू न कर ऐ मालीक ! अपनी उस नवाज़िश से
दिल को पड़ेगा थामना कलेजे चाक हो जायेंगे
बड़ी शिद्दत से चाहा था तुझे, मायूस न कर
अंधेरा गुज़र जाए तो, मंजील-ए-मकसूद न कर
मंज़ूर है तेरा हर सितम, रक्त रंजित सीने पर
गौर से रखना उस पार गर, बह जाए इक बूँद पसीने पर
तौहिन होगी तेरी, ज़रा ठहर ऐ मालीक !
तुझे कस्म-ए-क़ुरान लिख दूँ
सोचा... सलाम लिख दूँ.


                          -बलभद्र प्रसाद यादव


सोमवार, 14 मई 2012

Pinjare Mein Fafadate Pratik : Stree-Kavya Ke Sandarbh Mein

डॉ. सुनील जाधव द्वारा संपादित पत्रिका 'शोध-ऋतु' ISSN: 2456-6283 के अंक-1, मई-जुलाई, 2015 में प्रकाशित...               


      पिंजरे में फड़फडाते प्रतीक: स्त्री-काव्य के संदर्भ में


मैं दुनियाँ देखना चाहती थी

उन्होंने मेरे ऊपर जाल बिछा दी

तथा आँखों पर आदर्श की पट्टी बाँध दी

और कहा-

देखो... देखो... देखो!!!

मैंने अपनी चोंच से जाल को

छलनी कर दिया

और पंजों से पट्टी फाड़ दी

मैंने समझा मैं ‘उन्मुक्त’ हो गई



मैं खुले गगन में उड़ना चाहती थी

उन्होंने मेरा पर क़तर दिया

और पिंजरे से बाहर निकालकर कहा-

उडो... उडो... उडो!!!

सदियों से पुरूषवर्चस्ववादी मानसिकता के पिंजरे में क़ैद स्त्री थेरी गाथा से लेकर मीरा, महादेवी, सुभद्राकुमारी चौहान, शकुन्त माथूर, मणिका मोहिनी, कीर्ति चौधरी, रमणिका गुप्ता, निर्मला गर्ग, सुनीता जैन, सविता सिंह, सुशीला टाकभौरे, अनामिका, कात्यायनी, निर्मला पुतुल आदि ने प्रतीकों का स्वछंद रूप से चयन किया है। जिस प्रकार थेरी गाथाओं में धान कूटते हुए, जाता पीसते हुए, रोपनी-सोहनी करते हुए तथा विभिन्न उत्सवों-पर्वों पर विरह-वेदना व्यक्त है। उसी प्रकार मीरा ने अपने काव्य में सूली, सेज, पिय, मूरली आदि का प्रयोग किया है तो महादेवी ने तम, यामिनी, पक्षी, सांध्यगगन, गोधूली, तरी, सागर, शलभ, चातक, दीपक और बदली आदि प्रतीकों का प्रयोग किया है।

प्रतीक किसी वस्तु, चित्र, लिखित शब्द, ध्वनि या विशिष्ट चिन्ह को कहते है जो संबंध, समानता या परंपरागत किसी अन्य वस्तु का प्रतिनिधित्व करता है। “प्रतीक शब्द अंग्रेजी भाषा में मध्यकालीन अंग्रेजी, पुरातन फ्रांसीसी, लैटिन तथा ग्रीक भाषा के शब्द (Symbolon) से आया है; ग्रीक भाषा का symbolon शब्द, मूल शब्द (syn-) अर्थात् ‘एक साथ’ और (bole) अर्थात् ‘फेंकना’ से आया है, जिसका अर्थ है- ‘एक साथ फेंकना’, शाब्दिक अर्थ है ‘संयोग’ और साथ ही इसका अर्थ ‘संकेत, टिकट या अनुबंध’ भी है, इस शब्द को सबसे पहले हर्मिज के लिए होमर के गीत (हाइम) में इस्तेमाल किया गया है जब कछुआ देखने पर हर्मिज ने उसे एक वीणा में बदलने से पहले कहा “सिम्बोलोन” (चिन्ह/संकेत/सगुन/मुठभेड मौका मिलाना?) ऑफ जॉय टू मी, अर्थात् मेरे लिए खुशी का प्रतीक है”।

डॉ चन्द्रकांता के अनुसार, “प्रतीक वस्तुत: अप्रस्तुत की समग्र आत्मा या धर्म या गुण का समुचित रूप लेकर आने वाले प्रस्तुत का नाम है”। (गुप्ता, डॉ सुधा. बीसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध. पृ. 198)

हिन्दी साहित्य कोश के अनुसार, “प्रतीक शब्द का प्रयोग इस दृश्य (अथवा गोचर) वस्तु के लिए किया जाता है, जो किसी अदृश्य (अगोचर या अप्रस्तुत) विषय का प्रतिविधान उसके साथ अपने साहचर्य का कारण करती है अथवा कहा जा सकता है कि किसी अन्य स्तर की समानुरूप वस्तु द्वारा किसी अन्य स्तर के विषय का प्रतिनिधित्व करने वाली वस्तु प्रतीक है”। (वर्मा, डॉ धीरेन्द्र, संपा. हिन्दी साहित्यकोश, भाग 1; पारिभाषिक शब्दावली. पृ 398)

प्रतीक भाव-प्रसूत होते है, जो लेखक या कवि की भावनाओं को मूर्त-रूप प्रदान करते हैं। वे देश, काल तथा समयानुसार परिवर्तित होते रहते हैं। इसलिए हिन्दी काव्य की विभिन्न धाराओं में प्रतीकों का परिवर्तन देखा जा सकता है। अत: प्रतीक वे गोचर या अगोचर साधन हैं जिससे भाव मूर्तवत हो उठते हैं या प्रतीक के माध्यम से भावनाएँ जीवित हो उठती हैं। प्राय: प्रतीक लेखक या कवि की मानसिकता और जीवन-शैली पर आधारित होते हैं, इसलिए कवि और कवियित्रियों के प्रतीकों का अर्थ और भावार्थ अलग-अलग निकलते हैं।

प्रतीकों के संदर्भ में “पेगेट का मत है कि प्राय: सभी शारीरिक मुद्राओं के साथ-साथ स्वर-यंत्र में गति होती रहती है और इस सहचारी स्वर को अलग करके उसे उस मुद्राविशेष का प्रतीक बना लेना स्पष्ट ही अधिक सुविधाजनक और अल्पश्रमी उपाय था। मनुष्य ने रेखाएँ और चित्र खींचना भी शीघ्र सीख लिया था। उसकी ध्वन्यात्मक मुद्राओं के प्रतीकों से शब्द, शब्दों के योग से व्याकरण युक्त वाणी का और उसके चित्रलिपि से वर्णलिपि का विकास हुआ। इस प्रकार सभी शब्द प्रतीक हैं”। (वर्मा, डॉ धीरेन्द्र, संपा. हिन्दी साहित्यकोश, भाग 1; पारिभाषिक शब्दावली. पृ 399)

“सन् 1870 तथा 1886 ई. के मध्य फ्रांस में पारनेशनिज्म एवं यथार्थवाद (रियलिज्म) के विरोध में वेग्नर के संगीत से प्रभावित होकर नवीन कविताधारा का उद्भव हुआ, वह प्रतीकवाद के नाम से प्रसिद्ध हुई”। (वर्मा, डॉ धीरेन्द्र, संपा. हिन्दी साहित्यकोश, भाग 1; पारिभाषिक शब्दावली. पृ 400)

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने प्रतीकवाद को चित्रभाषावाद की संज्ञा दी है। वादलेयर, वर्लेन, रिम्बों, वालेरी, रिल्के, यीट्स, ब्लोक, वाल्ट ह्विटमैन आदि ने प्रतीक को अपने काव्य में प्रश्रय दिया। भारत में प्रतीकवाद का ज्ञान भले ही बाद में हुआ हो किन्तु प्रतीकों का प्रयोग काव्यधारा में वैदिककाल से ही दिखाई देता है। जिसका चर्मोत्कर्ष भक्तिकाल और छायावाद में देख सकते हैं।

प्रतीक दो रूपों में प्रयोग होते हैं- 1. संदर्भित 2. संघनित. (वर्मा, डॉ धीरेन्द्र, संपा. हिन्दी साहित्यकोश, भाग 1; पारिभाषिक शब्दावली. पृ 399) संदर्भित प्रतीक भौतिक चीजों के लिए संदर्भ के अनुसार प्रयोग होता है और संघनित प्रतीक मन और भावनाओं से जूडी बातों के लिए। काव्य में दोनों ही प्रतीकों का प्रयोग होता है।

डॉ सुधा गुप्ता ने प्रतीकों को पाँच भागों में विभाजित किया है- प्राकृतिक प्रतीक, पौराणिक प्रतीक, तकनीकि प्रतीक, यौन प्रतीक, जीवनचर्या प्रतीक।

कवयित्रियों के काव्य में प्रयुक्त प्रतीकों को तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं- 1. जातीय स्मृत्ति पर आधारित प्रतीक, 2. मिथकिय प्रतीक, 3. ऐतिहासिक प्रतीक

1. जातीय स्मृत्ति पर आधारित प्रतीक-

चूकि प्रतीक मानव-जीवन के भावनाओं की सूक्ष्म अभिव्यक्ति के साधन होते हैं, इसलिए कवियों द्वारा चयनीत प्रतीक जातीय स्मृत्ति पर आधारित हैं, जो इनके जीवनानुभव से जुडे हैं। जो कि कवियों द्वारा चयनित प्रतीकों से भिन्न अर्थ देते हैं। कवि और कवयित्रियाँ दोनों ने ही प्रतीकों को अपने-अपने संदर्भ के अनुसार एक ही प्रतीकों का चयन किया, संदर्भानुसार उनका अर्थ परिवर्तित हो गया है- जहाँ कवियों ने जूता, मोजा, जंगल, मकान, सफेद घोडा, घास, भेडिया, कुत्ता, सूअर, झींगूर, चूहा आदि प्रतीकों का चयन अधिक किया है, वहीं कवियित्रियों ने बेलन, चकली, चौका, कलछूल, बटुला, पोछा, दातून, बिस्तर, जूता, स्वेटर, सब्जी, बैसाखी, फूलदान, कूर्सी, खिड़कियाँ, मेंहदी, सुहाग, चूडी, कंगन आदि प्रतीकों को अपने काव्य का आधार बनाया है। उदाहरण के लिए रोटी प्रतीक को कवि लीलाधर मंडलोई, गज़लकार दुष्यंत और कवयित्री अनामिका जी की कविताओं को देख सकते हैं-

लीलाधर मंडलोई के अनुसार-

“उड़ती राख में शुमार कितनी ज़िन्दगियाँ

रोते हुए बच्चे हैं इस ख्वाब में मटियाले से

कशकोल थामे हुए रोटी को तरसते

घरों में क़ैद और इतने सहमे” -(मंडलोई, लीलाधर. काल का बाँका तिरछा. पृ. 61)

दुश्यंत के अनुसार-

“भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ ?

आजकल दिल्ली में है ज़ेरे बहस से मुद्दआ।”

-(गुप्ता, डॉ सुधा. बीसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध. पृ. 177 (दुष्यंत कुमार: साये में धूप))

अनामिका जी के अनुसार-

“मैं कैसेरॉल की अंतिम रोटी हूँ !

कैसेरॉल में ही बंद रही हूँ अब तक !

पीती रही भाप कुछ दिन तक

ठीक से सिंकी रोटियों की

जो मेरे ऊपर थकियाई गई थी !

एक जमाना वो भी था जब मैं

लुगदी लुगदी हो गयी थी

भाप दूसरों की पीती-पीती !

अब, या ख़ुदा, उस उधार की

भाप भी बिलाने लगी है!” (अनामिका. दूब-धान. पृ-84)

यहाँ रोटी प्रतीक कवि और कवयित्री दोनों के कविताओं में अंतर इसलिए हो गया है क्योंकि पुरूष घर से दूर समाज और भूगोल को विस्तृत रूप से देखते रहे हैं तथा किंतु स्त्री-जीवन अभी भी रसोईघर और रोटी के इर्द-गिर्द ही घूम रहा है, वह अभी तक अपनी अस्मिता की तलाश में ही भटक रही है। अत: दोनों के कार्य-क्षेत्र में अंतर होने से प्रतीकों का अर्थ परिवर्तित हो गया है। अनामिका ने मन के लिए काग़ज, समाज के लिए टिड्डियाँ, ईज़्जत के लिए केश औरतें और नाखून, पुरूष के लिए फर्नीचर, जीवन की गाँठों के लिए घुंघराले बाल, अस्तित्व के लिए डाक टिकट, दुख-दर्द के लिए जूएँ और कूड़ा-करकट, भूमंडल के लिए रोटी आदि प्रतीकों का चयन किया है.

इसी प्रकार कुत्ता प्रतीक को अज्ञेय अपने काव्य में प्रयोग करते हैं-

“मैं ही हूँ वह पदाक्रांत रिरियाता कुत्ता-

मैं ही वह मीनार-शिखर का प्रार्थी मूल्ला

मैं ही वह छप्पर-तल अहंलीन शिशु भिक्षुक”

-(गुप्ता, डॉ सुधा. बीसवी शताब्दी का उत्तरार्ध.पृ- 46)

लेकिन यही प्रतीक दलित कवयित्री सुशीला टाकभौरे ने स्त्री-अस्मिता के लिए चुना है, जिससे संदर्भ ही बदल गया है-

“जब कुत्ता और कुतिया

एक दूसरे के पूरक हैं

तब कुत्ते को वफादार

कहने के साथ ही

चरित्र के नाम पर

‘कुतिया’ गाली क्यों दी जाती है” ?

-(टाकभौरे, सुशीला. यह तुम भी जानो. पृ. 21)

अत: कुत्ता पुल्लिंग होने के कारण वफादार, शौर्य का प्रतीक है किन्तु कुतिया स्त्रीलिंग होने से गाली मानी जाती है। क्योंकि औरत के लिए औरतपन शब्द ही एक गाली के रूप में प्रयोग किया जाता है। प्राय: देखा जाता है कि यदि एक पुरूष दूसरे पुरूष को गाली देता है तो वह उस पुरूष को नहीं बल्कि उसकी माँ-बहन को संबोधित करते हुए गाली देता है। इसके दो कारण हो सकते हैं एक तो स्त्री का दैहिक मूल्यांकन और दूसरा औरत का पुरूष के ऊपर आश्रीत होना, जो सम्पत्ति है और ईज्जत का प्रतीक भी। इसलिए तो कहा जाता है-

“अपनी जगह से गिरकर

कहीं के नहीं रहते

केश, औरतें और नाखून”। -(अनामिका. खुरदुरी हथेलियाँ. पृ.15)

जातीय स्मृत्ति पर आधारित प्रतीकों के चयन में भिन्नता का प्रमुख कारण है स्त्रियों की मनोसामाजिक संरचना। वे घर की चहारदीवारी में क़ैद रहीं, उनका क्षेत्र घर की चहारदीवारी से लेकर घर की चौखट तक ही रहा। वे अपने बडे बुजूर्गों के सम्मुख खुलकर बात नहीं कर सकतीं, वे परिवार में आदेश नहीं दे सकती, प्रेम निवेदन नहीं कर सकतीं। ऊँची आवाज में बात नहीं कर सकतीं। अत: कविता ही उनके लिए एकमात्र साधन है जिसमें उनकी टूटन-घूटन व्यक्त हो सकती है। इसीलिए स्वेटर बुनते हुए, एक-दूसरे के सर में जूँ हेरते हुए, जाता पीसते हुए, बर्तन धोते हुए, खाना पकाते हुए, झाडू-पोछा करते हुए, बच्चे को दूध पिलाते हुए उनकी कविता या गीत स्वत: स्फुटित हो उठती है। या फिर त्योहारों-उत्सवों पर गाये जाने वाले गीतों में उनकी व्यथा-कथा प्रकट हो जाती है। अथवा जो बातें वे दिन भर घूँघट में दबाये रखती हैं और रात के समय खेत की ओर निकलते समय अपनी सखी-सहेलियों से नहीं कह पातीं, वे बातें आधी रात पति और परिवार से छुपकर अपनी लेखनी से कोरे कागज़ पर उड़ेल देती हैं। क्योंकि कविता लिखना और पढ़ना दोनों ही औरतों के लिए वर्जित था, इसलिए वह तकिए के नीचे काव्य संग्रहों को छूपाकर रखती थीं। लेकिन आज स्थिति बदल गई है, आज वह खुलकर अपनी अभिव्यक्ति तो कर सकती है पर सदियों से बनी-बनाई मानसिकता से वह अचानक निकल नहीं पा रही। आज स्त्री-विमर्श के वर्चस्व के कारण प्रयास करती भी है तो उसे अनेक आलोचनाओं का शिकार होना पड़ता है। सन् 1968 में रैडिकल फेमिनिज़्म नें पितृसत्ता के विरूद्ध जंग छेडी थी, तो सुलामिथ फायरस्टोन ने गर्भ से मुक्ति की बात की।

किन्तु उत्तर नारीवाद की कवयित्रियाँ पुन: घर की ओर उन्मुख हुईं, उन्होंने घरेलू शब्दों को अपनी कमज़ोरी नहीं बल्कि ताकत माना है। साथ ही मानवीय मूल्यों पर बल दिया है। अत: यहीं से चयनित होते हैं इनके प्रतीक और यहीं से जूडती हैं इनकी संवेदनाएँ।

सुशीला टाकभौरे ने संसार, मनुष्यता, हृदय, विस्तार के लिए सागर, घर के लिए कूप, विस्तार, स्वतंत्रता, मन के लिए आकाश, प्रकाश और ज्ञान के लिए सूरज, अस्तित्व एवं धैर्य के लिए धरती, नारी के लिए हीरा और चंदन वन की शाख, कूरीतियों के लिए मटियारा चूल्हा आदि प्रतीकों का प्रयोग किया है। रमणिका गुप्ता ने ज्ञान के लिए सूरज, अज्ञान के लिए अंधेरा, स्त्री की बौद्धिक पहुँच के लिए चादर, बंधन के लिए खूंटा, सहारा के लिए बैसाखी, रूढ़ियों, परंपरा के लिए पौधे, उत्तरआधुनिक फैशनपरस्ती के लिए फूलदान, घर के लिए बंदीगृह, मन के लिए खिड़कियाँ आदि प्रतीकों का प्रयोग का किया है। सुनीता जैन ने सुहाग के लिए मेंहदी, मन के लिए सरसों का खेत और सीप, संकीर्ण विचारों के लिए राख, हौसलों के लिए पंख, आलिंगन के लताएँ आदि प्रतीकों का प्रयोग किया है।

कवयित्रियों के काव्य में पितृसत्ता, प्रजनन, अर्थ की समस्याओं के साथ-साथ दैहिक समस्या प्रमुख रूप से केन्द्र में रहा है. जहाँ उन्होंने प्रेम में उठे कसक और दर्द की खुलकर अभिव्यक्ति की है, वहीं दैहिक मूल्यांकन से व्यथित व्यथा का सजीव चित्रण भी किया है। उदाहरण के लिए बलात्कार जैसे मानसिक और शारीरिक यंत्रणा को देख सकते हैं, बलात्कार अभिशाप बनकर स्त्री -जीवन को टांड़े की तरह खा जाता है, जो अकथनीय है, फिर भी इसे कवियित्रियों ने अपनी कविता में पिरोया है, निर्मला पुतुल के शब्दों में-

“क्या पाँव में चुभे

कांटों की तरह

कूरेद निकाल फेंकोगे-

आत्मा में फंसी हुई पिन

गर्भ में गडी हुई जहर की बुझी तीर

अन्दर ही अन्दर

नासूर बन टीसते टीस को

मिटा पाओगे किसी जन्म में”?

-(पुतुल, निर्मला. अगर तुम मेरी जगह होते.(पाण्डुलिपि))

यहाँ कांटे, पिन, ज़हर की बुझी तीर आदि प्रतीक बलात्कार के पश्चात् स्त्री के मन की अथाह पीड़ा को व्यक्त करने में सहायक हैं जिसे वह हर दिन लगातार तिल-तिल कर जीती है. ऐसे दैहिक पिंजर को पुरूष कभी भी महसूस नहीं कर सकता. इसी प्रकार नेहा शरद ने देह के साथ-साथ पितृसत्तात्मक पिंजरे को परम्परागत मानते हुए लिखती हैं-

“मैं एक मशीन हूँ

सिर से पाँव तक ढ़की

मैं एक लाश हूँ

और दूँगी और लाशों को जन्म” -(शरद, नेहा. ख़ुदा से ख़ुद तक. पृ.- 22)

नेहा शरद ने मशीन, सात ताले, खूँटे, आईना, काजल की कोठरी आदि प्रतीकों का प्रयोग किया है। कविता वाचक्नवी खारे जल को आँसू का प्रतीक मानती हैं। निर्मला पुतुल ने अपने काव्य में अस्तित्व और तुफान के लिए जमीन, क्रांति से महाक्रांति के लिए बवंडर, क्रांति के लिए चिन्गारी प्रतीक का प्रयोग किया है।

2. मिथकिय प्रतीक-

कवयित्रियों ने अपनी बातें स्पष्ट करने के लिए पौराणिक, रामायण और महाभारत के उन श्रद्धालू पात्रों का चयन किया है जिनके प्रति समाज अविश्वास तो क्या नकारात्मक सोच भी नहीं रख पाता। राम, शंकर, ब्रहमा, भीष्म, इन्द्र, सीता, द्रोपदी, गंगा, अहल्या आदि इनके प्रतीक हैं। मिथकिय पुरूष पात्र पुरूषवर्चस्ववादी सत्ता के प्रतीक होते थे और स्त्रियाँ किसी न किसी रूप से उनसे प्रताडित होती थी, किंतु बनी बनायी आदर्श और पतिव्रता की अवधारणा ने इन्हें देवी बना दिया था। इन सभी पात्रों को कवियित्रियों ने कटघरे में खड़ा कर दिया है।

सुनीता जैन ने ‘चौखट पर व उठो माधवी’ नामक काव्य-संग्रह में महाभारत से गालव और माधवी प्रकरी का मिथक चुना है, जिसमें राजा ययाति ने गालव को श्यामकर्ण वाले 800 घोड़ों के स्थान पर अपनी पुत्री माधवी को भिक्षा में दे दिया। तत्पश्चात् क्रमश: पक्षीराज गरूड़ गालव का राजा हर्यश्व, राजा दिवोदास, राजा उशीनर तथा महर्षि विश्वामित्र को श्यामकर्ण वाले घोड़ों के न होने पर तथा उनका मूल्य चुकाने हेतु माधवी को सौंपना तथा उनसे क्रमश: वसुमना, प्रतर्दन, शिबि तथा अष्टक नामक यशस्वी पुत्रोत्पति होना एक मर्मान्तक मिथक है। उन्होंने माधवी को एक मिथकिय नारी से सामान्य नारी के रूप में चित्रित किया है, जिसमें एक कन्या को स्वयं उसके पिता किसी व्यक्ति को दान कर देता है और घोड़ों के मूल्य के बदले एक-एक पुरूष के पास जाकर मूल्य चुकाती है और पुत्रोत्पत्ति करती है, किंतु शर्त यह है कि माधवी स्वयं अपनी इच्छा से किसी भी पुरूष की इच्छा नहीं कर सकती तथा न ही कामोत्तेजित हो सकती है। ऐसी स्त्री की टूटन-घुटन अत्यंत संवेदनशील ढ़ंग से प्रस्तुत किया गया है, जो महाभारतकाल में नारी की पूजनीयता और मान-सम्मान पर प्रश्न चिन्ह लगाता है-

“लज्जा मर जाती है जब

पिता, द्विज और

भरतारों की

नुचता ही है मांस मलिन तब

माँ, बेटी या पत्नी का

मैं थी एक दृष्टांत माधवी,/

तुच्छ मानव जीवन की”

-(जैन, सुनीता. चौखट पर व उठो माधवी. पृ. 68)

कवयित्री रजनी रंजना ने प्रतीक्षा पंथिनी में भारतीय वाड्मय का चिरपरिचित पौराणिक पात्र शबरी को चुना है। कात्यायनी की नारी अपनी अस्मिता स्थापित करने हेतु अपने पंखों को फड़फड़ाती हैं। उनकी जिजीविषा के साथ न तो इन्द्र छल कर सकते हैं और न ही वृहस्पति नष्ट कर सकते हैं-

“ख़ुद ही मैं ढूँढ रही हूँ/ अपनी अभिव्यक्ति/ अनन्त रहस्यों भरे अपने हृदय को/ छिपाये हुए/ स्वर्ग के तलघर में/ नरक की छत पर/ कटे पंख फदफदाते हुए/ फुदकते हुए/ नए पंखों के उगने की प्रतीक्षा में/ हासिल करके फिर से अपनी आँखें/ अपनी अस्मिता तक/ उड़कर पहुँच जाने के लिए/ हाहाकर करते इस हृदय में/ क्या चुरा सकता है उसे इन्द्र/ या नष्ट कर सकता है वृहस्पति”?

-(कात्यायनी. जादू नहीं कविता. पृ.88)

इन प्रतीकों के माध्यम से यह ज्ञात होता है कि ईश्वर भी यौवन-लोलुपता से अछूता नहीं है, सुखसागर में नवम् स्कंद के चौदहवें अध्याय के अनुसार वृहस्पति देव देवताओं के गुरू थे. उनकी पत्नी तारा को चन्द्रमा घमंड में आकर उनसे छीन ले गए. वृहस्पति के माँगने पर भी उन्होंने तारा को नहीं लौटाया. अत: ब्रह्मदेव की आज्ञा से उन्होंने उन्हें लौटा दिया किन्तु तब तक तारा गर्भवती हो चुकी थीं. इसलिए वृहस्पतिदेव ने उनके गर्भ को नष्ट करने की धमकी दी और कहा कि अगर तुम पतिव्रता पत्नी हो तो यह गर्भ गिरा दो. रोती-बिलखती तारा गर्भ तो गिराई किन्तु वह सुन्दर बालक बुद्ध के रूप में प्रकट हो गया, जिसे चन्द्रमा ने अपना लिया. उसी बुद्ध की पुत्री इला के पुत्र पुरूरवा की सुन्दरता का बखान सुनकर स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी सम्मोहित होकर पुरूरवा के पास आ गई तथा अपने साथ दो मेंढ़क लायी. साथ ही यह शर्त रखी कि जब तक उनके मेंढ़क की रक्षा होती रहेगी तथा राजा को नंगा नहीं देखूँगी तब तक वे पृथ्वी पर निवास करेंगी. पुरूरवा ने सहमति जताई. किन्तु इन्द्रदेव उन्हें अपने सभा में न पाकर दो गन्धर्वों को ढूँढने के लिए भेजा. गन्धर्वों ने मेंढकों को ढूँढ लिया और अपने साथ ले जाने लगे, जिसका पता उर्वशी को चल गया. तब वे मेंढकों की रक्षा न होनें और इन्द्र की आज्ञा से विवश होकर पुन: स्वर्ग लौट गई. इस प्रकार स्वर्ग की देवी तारा, अप्सरा उर्वशी और धरती की ऋषिपत्नी अहिल्या तीनों की अस्मिता खो गई.

इन्द्र स्वर्ग पर अधिपत्य स्थापित करने के पश्चात भी धरती पर बसे मानवों के साथ छल करते रहें। इसका सशक्त उदाहरण है गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या के साथ वेश बदलकर छल करना, जो गौतम ऋषि के श्राप के कारण पत्थर बन गई. अंतत: क्षमा माँगने पर वर्षों बाद श्री राम अपने चरणों से छूकर उनका उद्धार करते हैं. इसी प्रकार रमणिका गुप्ता भी पुरूषवर्चस्ववादीसत्ता पर करारा चोट करती हैं-

“अहल्या को भी/ इन्द्र से प्यार के कारण/ ‘पत्थर’ बनने का श्राप झेलना पड़ा।/

और उस श्राप से मुक्ति दिलाने वाला/ एक पत्नीव्रतधारी/ धोबी के कहने पर/ सीता को घर से निकालने वाला/ सीता का पति/ एक पुरूष-राम ही था।/ पर-पुरूष के छूने से ही/ वह नारी बनी- पत्थर से/ जो पर-परस के कारण पत्थर बनी थी- नारी से”।

-(गुप्ता, रमणिका. खूँटे. पृ.16-17)

अनामिका मिथकीय श्रद्धालू पात्रों के चयन में स्त्री-पुरूष पात्रों के कर्तव्य-क्षेत्र में भी अन्तर मानती हैं, उनका कहना है कि-

“ईसा मसीह/ औरत नहीं थे/ वरना मासिक धर्म/ ग्यारह बरस की उमर से/ उनको ठिठकाए ही रखता/ देवालय के बाहर!

बेथलेहम और यरूशलम के बीच/ कठिन सफर में उनके/ हो जाते कई तो बलात्कार/ और उनके दुधमुँहे बच्चे/ चालीस दिन और चालीस रातें/ जब काटते सड़क पर/ भूख बिलबिलाकर मरते/ एक-एक कर/ ईसा को फुर्सत नहीं मिलती/ सूली पर चढ़ जाने को भी!” -(अनामिका. कवि ने कहा: अनामिका. पृ.77)

इन सबसे अलग सुशीला टाकभौरे एक युग चेतना को जन्म देना चाहती हूँ-

“वंश और समाज की अमरता/ अक्षुण्ण धारा में नहीं/ किसी एक बिन्दू/ एक नाम में ही होती है/ क्रौंची ने नाम दिया/ वाल्मीकि को/ और एकलव्य को द्रोणाचार्य ने/ विषमता और स्वार्थ की कोख से

मैं अति को/ विषमता को तोड़ कर/ सहृदयता जगाना चाहती हूँ/ क्रौंचि की तरह मैं/ जन्म देना चाहती हूँ/ चुग चेतना को”।

-(टाकभौरे, सुशीला. तुमने उसे कब पहचाना. पृ.-16)

अत: स्पष्ट है कि स्त्री अभी भी अस्मिता की तलाश में अहिंसा का हथियार उठाए लड़ रही है तो पुरूष इन सबके विपरीत राजनीति तक अपना पैर पसारे राम-युग को ढूंढ रहा है, कुँवर नारायण के शब्दों में-

“हे राम, कहाँ यह समय

कहाँ तुम्हारा त्रेता युग

कहाँ तुम मर्यादा पुरूषोत्तम

और कहाँ यह नेता युग!

सविनय निवेदन है प्रभु कि लौट आया

किसी पुराण- किसी धर्मग्रन्थ में

सकुशल सपत्नीक...

अबके जंगल वो जंगल नहीं

जिनमें घूमा करते थे वाल्मीक!”

-(नारायण, कुँवर. पचास कविताएँ- नयी सदी के लिए चयन. पृ. 47)

3. ऐतिहासिक प्रतीक-

कवयित्रियों ने मिथकिय प्रतीकों की भाँति ही ऐतिहासिक प्रतीकों का भी चयन किया है। रमणिका गुप्ता ने हरक्यूलस, रीछ, राबिनहुड, ट्राय की हेलन, क्लियोपेट्रा, अनारकली आदि ऐतिहासिक प्रतीकों को चुना है तो अनामिका जूलीयस सीजर, शेक्सपीयर जैसे महान कवियों की छवि के साथ-साथ चन्द्रगुप्त, विक्रमादित्य, हर्षवद्धन, अशोक, अकबर, चाणक्य, बीरबल, दलाईलामा, गौतम बुद्ध तथा आम्रपाली आदि ऐतिहासिक प्रतीकों का सहारा लिया है। किन्तु दोनों ही कवयित्रियों की कविताओं का भाव अलग-अलग है। रमणिका गुप्ता के काव्य में पुरूष-स्त्री में ऐतिहासिक तथा मिथकिय पात्रों की भाँति कोमलता, कमनीयता तथा सुदृढता ढ़ूढता है-

“मुझ में खोजा-/ ट्राय की हेलन का सौंदर्य-बोध/ क्लियोपेट्रा का रूप/ और रति की नफासत/ अनारकली का कौमार्य/ अहल्या का धैर्य/ जिनके रूप से ही तराजू के पलडे झुक जाएं/ इतना झुक जाएं/ कि उन्हें उठाने के लिए/ फिर किसी पुरूष का ही सहारा लेना पड़े”। -(गुप्ता, रमणिका. खूँटे.पृ.-44)

जबकि अनामिका की कविता में स्त्री ऐतिहासिक पात्रों में अपनी ज़मीन तलाशती है।

“कुछ देर हमने सोचा-/ अपने समय से निकलकर,/ देश-काल- सबसे छिटककर/ जाएँ तो जाएँ कहाँ!/ कुछ देर सोचने के बाद तय किया-/ नहीं, किसी स्वर्ण-युग में तो नहीं जाएँगे-/ क्या करेंगे- चन्द्रगुप्त मौर्य या विक्रमादित्य,/ हर्षवद्धन, अशोक, अकबर के युग तक जाकर?/ गए अगर- बस अड्डा छू लौट आएँगे./ छू लौट आएँगे/ चाणक्य की चुटिया, वैताल की लुटिया,/ दानयज्ञ के बाद बची हुई हर्षवर्धन की खाली टोकरी/ या अशोक की उठकर गिरी हुई तलवार/ या बीरबल की खिचडी-विचडी!/ जाना ही होगा तो जाएँगे मोहनजोदाडो-/ मिट्टी की पहली गाडी का पहिया बनने!” -(अनामिका. कवि ने कहा: अनामिका, पृ.- पृ.- 37-38)

निर्मला पुतुल ने आदिवासी ऐतिहासिक प्रतीकों जैसे बाहामुनी, चुड़का सोरेन, सजोनी किस्कू, पकलू मराण्डी आदि को चुना है, जिसमें आदिवासियों की दुर्दशा तथा व्यथा का दयनीय और स्पष्ट चित्रण है-

“बस! बस!! रहने दो!/ कुछ मत कहो सजोनी किस्कू!/ मैं जानती हूँ सब/ जानती हूँ कि अपने गाँव बागजोरी की धरती पर/ जब तुमने चलाया था हल/ तब डोल उठा था/ बस्ती के माँझी-थान में बैठे देवता का सिंहासन/ गिर गयी थी पुश्तैनी प्रधानी कुर्सी पर बैठे/ मगजहीन ‘माँझी हाड़ाम’ की पगड़ी/ पता है बस्ती की नाक बचाने खातीर/ तब बैल बनाकर हल में जोता था/ जालीमों ने तुम्हें/ खूँटे में बाँधकर खिलाया था भूसा”। -(पुतुल, निर्मला. नगाड़े की तरह बजते शब्द. अनु.अशोक सिंह, पृ.23)

निष्कर्षत: कह सकते हैं कि प्रतीक भावों का आईना है, वह कवि के परिवेश, परिस्थिति और मनोसामाजिक संरचना से अवगत कराने का सशक्त माध्यम है. इससे काव्यार्थों में विविधता पैदा होती है तथा पाठक का दृष्टिकोण प्रभावित होता है. सन् 1980 के बाद की कविताएँ पढ़ने से स्पष्ट होता है कि बदलते परिवेश के साथ अब कवियित्रियाँ चौखट से बाहर निकलकर खुले गगन में अपना पंख फैला रही हैं. फिर भी घर इनकी जमीनी सच्चाई है, जिसे ये अपनी शक्ति भी मानती हैं. घरेलू प्रतीक इनके लिए वो नुकीले और धारदार औज़ार हैं जो इनकी प्रत्येक टूटन-घुटन, व्यथा-कथा तथा मन के सूक्ष्म भावों की अभिव्यक्त करते हैं, साथ ही पितृसत्ता पर करारा चोट भी करते हैं. जैसे नेहा शरद की कविता की एक लाइन “बेमन खूंटे से बंधी ब्याहता जो हूँ” में ब्याह के साथ खूंटा प्रतीक स्त्री-जीवन की सम्पूर्ण सुख-दुख और खटास को एक साथ प्रदर्शित करता हैं.

ये प्रतीक घर की चहारदीवारी के साथ-साथ भूमंडल के कैनवस पर आधी-आबादी के सम्पूर्ण चित्र के रूप में उभरते हैं. लेकिन ध्यातव्य है कि जितना पुरूष विश्व के प्रत्येक क्षेत्र में अपना वर्चस्व स्थापित कर चुका है, उतना स्त्री अभी भी नहीं कर पायी है. वह अभी भी किसी न किसी रूप में पुरूषवर्चस्ववादी सत्ता के पिंजरे में क़ैद है और मुक्ति के लिए छटपटा रही हैं. लेकिन वह हार मानने के लिए तैयार नहीं बल्कि समता, स्वतंत्रता और सद्भावना के धरातल मुक्ति के निरंतर प्रयासरत है.

सुनीता जैन के शब्दों में कहें तो-

“हो जाने दो मुक्त

आज अपनी ही राख से

उड़ूँ झाड़कर पंख

चीर आकाश”

-(जैन, सुनीता. सुनीता जैन: अब तक 3, कविता 1, पृ. 25,(हो जाने दो मुक्त)





        - डॉ. रेनू यादव

शनिवार, 12 मई 2012

Sathottari Kavita Ke Jalte Chulhe Par Stree-Bhasha

                                  साठोत्तरी कविता के जलते चूल्हे पर स्त्री-भाषा



“यह कविता नहीं

मेरे एकान्त का प्रवेश द्वार है

यहीं आकर सुस्ताती हूँ मैं

टिकाती हूँ यहीं अपना सिर

जिन्दगी की भाग दौड़ से थक-हारकर

जब भी लौटती हूँ यहाँ

आहिस्ता से खुलता है

इसके भीतर एक द्वार

जिसमें धीरे से प्रवेश करती मैं

तलाशती हूँ अपना निजी एकान्त

यहीं मैं वह होती हूँ

जिसे होने के लिए मुझे

कोई प्रयास नहीं करना पड़ता

पूरी दुनिया से छिटककर

अपनी नाभि जुड़ती हूँ यहीं”

-(पुतुल, निर्मला. नगाड़े की तरह बजते शब्द. अनु, अशोक सिंह. पृ.88.)

निर्मला पुतुल का यह वाक्य अक्षरश: सत्य है। स्त्री घर की चहारदीवारी के बीच दिन-रात यांत्रिक गति से चलती-फिरती थकी-हारी कभी सोच भी नहीं सकती कि उसे अपने पति, बच्चों के अतिरिक्त और क्या चाहिए? प्रेम की चाह भी उसकी मानसिकता की कढ़ाई में लगी हल्दी की भाँति होती है, जो घिस-घिसकर साफ करने से भी नहीं छुटती। रात को रसोईघर साफ करने के साथ-साथ बिस्तर पर नोच-खरोच के अलावा भी मन को शुकून देने की एक व्याकुलता बनी रहती है और वह पति-बच्चों को सुलाने के पश्चात् आधी रात उठकर पति और बच्चों के शक से दूर अपने जीवन-डायरी के गोंजे हुए पन्नों पर अपनी व्यथा लिख-लिखकर मन को विश्राम देती है । वहीं से उभरती है स्त्री की वास्तविक मनोदशा, जो पति, प्रेमी, पुत्र और परिवार अथवा किसी अंतरंग सहेली की समझ से परे है।

वैदिक ऋचाएँ, थेरीगाथाएँ, मीरा की भक्ति, महादेवी का प्रणय,सुभद्रा कुमारी चौहान की राष्ट्रभक्ति, कीर्ति चौधरी और शकुन्त माथुर का सप्ततार से होते हुए काव्य की अविच्छिन धारा प्रवाहित होते हुए भी साहित्येतिहास में गहरी चुप्पी छायी रही।

सन् 1960 तक आते-आते महिलाओं कि चुप्पी टूटी और अनेक कवयित्रियों ने अपनी समस्याओं पर खुलकर अभिव्यक्ति दी। साठोत्तरी कवयित्रियों में प्रमुख कवयित्रियाँ एवं उनके काव्यों के नाम इस प्रकार हैं-

अनामिका –(बीजाक्षर, अनुष्टुप, खुरदुरी हथेलियाँ), अनीता वर्मा – (एक जन्म में सब), अमिता शर्मा –(हमारे झूठ भी हमारे नहीं), आशारानी व्होरा – (लहर-लहर गिनते हुए), इन्दु वशिष्ठ – (धूप के रंग, टुकड़े-टुकड़े जिन्दगी), उषाराजे सक्सेना – (इन्द्रधनुष की तलाश में), कमल कुमार – (गवाह), कविता वाचक्नवी – (मैं चल तो दूँ), कात्यायनी – (सात भाईयों के बीच चम्पा, इस पौरुषपूर्ण समय में, जादू नहीं कविता), कान्ता नलिनी – (जकड़े रिश्ते उखड़े पाँव), गगन गिल – (एक दिन लौटेगी लड़की, थपक थपक दिल थपक थपक), निर्मला गर्ग – (कबाड़ी का तराजू), निर्मला पुतुल – (अपने घर की तलाश में, नगाड़े की तरह बजते शब्द),

नीलेश रघुवंशी – (घर निकासी, पानी का स्वाद), नेहा शरद – (ख़ुदा से ख़ुदा तक), प्रभा खेतान – (अपरिचित उजाले, सीढ़ियाँ चढ़ती हुई मैं), ममता कालिया – (खाँटी घरेलू औरत), रंजना जायसवाल – (मछलियाँ देखती हैं सपने), रमणिका गुप्ता – (खूंटे, मैं आज़ाद हुई हूँ), रमा द्विवेदी – (दे दो आकाश), रेखा – (चिंदी-चिंदी सुख, अपने हिस्से का सूरज), वीणा घाणेकर – (पता है और नहीं भी), सविता सिंह – अपने जैसा जीवन, नींद थी और रात थी), संध्या गुप्ता – (बना लिया मैंने भी घोसला), सुनीता जैन – (हो जाने दो मुक्त, कौन सा आकाश),

सुनीता बुद्धिराजा – (अनुत्तर), सुमन राजे – (उगे हुए हाथों के जंगल, यात्रादंश), सुशीला टाकभौरे – (यह तुम भी जानो, तुमने उसे कब पहचाना), सुशीला मिश्रा – (मोती पलकों के)।

इनके लिए तकिए के नीचे रखकर काव्य पढ़ना भले ही पुराना हो पर काव्य-लेखन नया क्षेत्र रहा, फिर भी इन्होंने बड़े ही साहस के साथ अपने जीवन के अंतरंगता को बिना किसी लाग लपेट के सीधे सच्चे शब्दों में व्यक्त किया। इन कवियित्रियों के अभिव्यक्ति की भाषा-शैली भले ही अलग-अलग रही हो किन्तु भाव एक ही है। इनकी ऊबड़-खाबड़ जीवन की भाँति उनकी कविता की भाषा भी ऊबड़-खाबड़ किन्तु विचारात्मक रही। निर्मला पुतुल के अनुसार-

“बिना किसी लाग लपेट के

तुम्हें अच्छा लगे, ना लगे, तुम जानो

चिकनी-चुपड़ी भाषा की उम्मीद न करो मुझसे

जीवन के ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर चलते

मेरी भाषा भी रुखड़ी हो गयी है

मैं नही जानती कविता की परिभाषा

छन्द, लय, तुक का कोई ज्ञान नहीं मुझे

और न ही शब्दों और भाषाओं में है मेरी पकड़”

-(पुतुल, निर्मला. नगाड़े की तरह बजते शब्द.अनु, अशोक सिंह. पृ. 94)

भाषा की परिभाषा भी महिलाओं ने पुरूष की परिभाषा से भिन्न अपने ही अंदाज में दिया है। स्त्री-विमर्शी कवियित्री अनामिका ने बड़े सरल शब्दों में कह दिया है- “भाषा का सार है संवाद, भाषण नहीं। दोनो होठों की अस्मिता बरकरार रखने का नाम है भाषा” । -(अनामिका. कविता में औरत. पृ.28)

जूलिया क्रिस्तेबा भाषा को परिभाषित करते हुए कहती हैं- “भाषा एक रलगल प्रक्रिया (जैनरेटव प्रॉसेस) है, अर्थविन्यास का अटल ढाँचा नहीं। मातृसत्तात्मक प्राक-एड़ीपसीय संवेदनाओं की (सिमिऑटिक) लय और पितृसत्तात्मक सामाजिक विनियमितताओं (सिंबॉलिक) के बीच का संवाद है भाषा”। -(अनामिका. कविता में औरत. पृ.44)

इरिगेरे ने यौन संवेदनाओं का सीधा संबंध भाषिक संवेदनाओं से माना है तो सिक्सू ने शब्दों की मितव्ययिताओं का संबंध ‘लिबिडनल इकोनॉमी’ से माना है कि पुरुष संग्रह प्रवृत्ति के कारण शब्दों का संग्रह करता है और स्त्री समेटती भी है, खर्च भी करती है और दान भी करती है। -(अनामिका. कविता में औरत. पृ.44)

काव्य का सामाजिक अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि काव्य-भाषा देश-काल और वातावरण से प्रभावित होता है। चूंकि कवयित्रियाँ स्वयं को कवि मानने से इंकार करती हैं तथा इनके लिए काव्य-क्षेत्र नया-नया है इसलिए ये अपने काव्य का मूल्यांकन सार्वभौमिक स्तर पर करने की माँग करती हैं। यदि इनके काव्य का सार्वभौमिक स्तर पर मूल्यांकन किया जाए तो इनकी भाषा का दो रूप सामने आता है-

1. स्वाभाविक भाषा

2. मनोसामाजिक संरचना पर आधारित भाषा

जिस भाषा को कवि या लेखक अपने परिवार, समाज, क्षेत्र तथा परिवेश से अनायास ही ग्रहण कर लेता है अथवा उसे ग्रहण करने में विशेष प्रयत्न नही करना पड़ता और वह भाषा शब्द –सम्पदा, मुहावरा, लोकोक्ति, लोकगीतों तथा मिथक आदि के रूप में स्वत: व्यवहृत होने लगती है, उसे स्वाभाविक भाषा कहते है। जैसे- बिस्तर की चादर मुचकना, कोख, खिचड़ी, सब्र, आबरू, आँचल, लाज, आज़ादी, करधनी, फूलदान, कचनार, बिरवा, लीपना, मेंहदी, कुहुकना, सिंगारदान, लालसाड़ी, घूँघट, कैसेरॉल, रोटी, चोटी, चटनी, टिकूली, अँगिया, नेलपॉलिश, चौकी, बेलन, सिंगारदान, मसखरा, सुहागसेज, जच्चाघर, भात, महुआ, गोबर आदि।

मनोसामाजिक संरचना पर आधारित भाषा के अंतरगत वे भाषाएँ आती हैं, जिसमें देश, काल, परिवेश तथा कवि की मानसिकता के अनुसार कुछ विशिष्ट शब्द-सम्पदा का चयन होता है, जिसे चाहकर भी कवि स्वयं से अलग नहीं कर पाता तथा भाषा उसकी शैली के साथ समन्वित हो कर विशिष्ट बन जाती है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण गगन गिल, रमणिका गुप्ता, अनामिका, निर्मला पुतुल, सुशीला टाकभौरे, नेहा शरद आदि कवयित्रियों के काव्य में देखा जा सकता है। इनकी भाषा जमीन से जुड़ने के कारण अत्यंत जीवंत होती हैं। जिसका प्रथम आधार समाज होता है, जहाँ स्त्री को दोयम दर्जे का समझा जाता है। समाजभाषावैज्ञानिकों ने स्त्री का वस्तूगत मूल्यांकन एवं दोयम दर्जे का समझा जाना ही उनकी एवं पुरूष की भाषा में भिन्नता का प्रमुख कारण माना है। डॉ ऋषभदेव शर्मा के अनुसार उनकी पारंपरिक भाषा विनम्रता पूर्वक थी, वे आलोचना नहीं कर सकती थीं, प्रश्न नहीं कर सकती थीं, आदेश नहीं दे सकती थीं, किन्तु अब वे इस कटघरे से बाहर निकल आई हैं।अब वे नि:संकोच अपना आक्रोश व्यक्त करती हैं, प्रश्न पूछती हैं, आदेश भी देती हैं। इनकी भाषा अधिकतर सांकेतिक होती हैं, जिसे देह की भाषा भी कहते हैं। इनका प्रयुक्ति क्षेत्र घरेलू है, इसलिए ये घरेलू शब्दावली जैसे चौका, बर्तन, रोटी, झाड़ू, बूहारू, कूर्सी, मेज, किचन, सुपेली आदि के साथ-साथ अपनी व्यक्तिगत अनुभूति जैसे मासिक-धर्म, प्रेम, पीड़ा, सहवास, बलत्कार, प्रसव, वैधव्य, सुहाग, मातृत्व आदि विषयों पर लिखना शुरू की हैं, जिससे पुरूष वर्ग सदैव बचना चाहता है। किंतु कवियित्रयों ने अपनी जीवनाभूति एवं घरेलू हथियार से पूरे साहित्य जगत् को चुनौती दी है तथा पांड़ित्य-प्रदर्शन को कटघरे खड़ा कर दिया है। उदाहरण के लिए कवियित्री अनामिका का ‘प्रथम स्राव’ नामक कविता देख सकते हैं, जिसमें प्रथम माहवारी के समय एक लड़की की मानसिक ऊहा-पोह के विषय में बड़ी ही सुन्दर अभिव्यक्ति है-

“उसकी सफेद फ्रॉक / और जाँघिए पर / किस परी माँ ने काढ़ दिए हैं / कत्थई गुलाब रात-भर में ? / और कहानी के वे सात बौने / क्यों गुत्थम-गुत्थी / मचा रहे हैं / उसके पेट में ?/ अनहद-सी बज रही है लड़की / काँपती हुई। / लगातार झंकृत हैं / उसकी जंघाओं में इकतारे।/ चक्रों सी नाच रही है वह / एक महीयसी मुद्रा में / गोद में छुपाए हुए / सृष्टि के प्रथम सूर्य सा, लाल-लाल तकिया”। (अनामिका. अनुष्टुप. पृ.28-29)

पेट में गुत्थम-गुत्थी मचाना, अनहद नाद सी बजना, जंघाओं के बीच झंकृत होना एक औरत ही समझ सकती है, क्योंकि यह मात्र औरत का क्षेत्र है। अनामिका की भाषा जलते चूल्हे पर सिंकती रोटी की सोंधी खुशबू की तरह उड़कर आसमान को भी पढ़ने हेतु ललचा देती है। इनकी कविता बोलचाल की भाषा का वह विलुप्त रूप प्रस्तुत करता है, जिसका लेखन में बहुत कम प्रयोग होता है। जैसे – पुकूर-पुकूर, थकियाई, पारना, कजरौटा, चुटूर-पुटूर, अकर-बकर, खुदूर-बुदूर, चुकूमुकू, बुक्का, पट्ट, छनकाह, कछमछ, गमागम, टुईयाँ, पतुरिया, चकत्ता, कठुआ, दिठौना, बोरसिया, सीवान, तोपन, दूधकट्टू आदि। इनकी कविता में एक लय और ताल प्रवाहित होता है, इसलिए इनकी भाषा को संगीतात्मक भाषा कह सकते हैं।

“कोई ऐसी बात जिससे बदल जाए

जीवन का नक्शा,

रेती पर झम-झम-झमक-झम कुछ बरसे...”

-(अनामिका. खुरदुरी हथेलियाँ. पृ. 29)



कवयित्रियों ने पुरूष-सत्ता की रूढ़ियों, नियम कानूनों, कूरीतियों के विरोध में निषेधात्मक भाषा का भी प्रयोग किया है। जैसे-“क्षमा नहीं मांगूंगी... झुकूंगी नहीं... मैं अब सीता नहीं बनूँगी... रूप नहीं वरूँगी”। -(गुप्ता, रमणिका. खूँटे. पृ.47)

रमणिका गुप्ता ने प्रेम और सेक्स की कविताओं को खूले मन से नि:संकोच लिखा है, प्रेम उनकी हिम्मत है तो सेक्स उनके प्रेम का चर्मोत्कर्ष। उन्होंने कभी भी पुरूषों के आगे सर नहीं झुकाया बल्कि उन्हें झुकने के लिए सदैव मजबूर किया है। उन्होंने पुरूषवर्चस्ववाद के विरूद्ध प्रहारक भाषा का प्रयोग किया है, नोच दूंगी, खरोच दूंगी, उधेड़ दूंगी, रगेद दूंगी आदि आक्रोशमयी शब्द यत्र-तत्र पाये जाते हैं। इसलिए इनकी भाषा को लट्ठमार भाषा भी कह सकते हैं। रमणिका के विचारों का आंगन लीपकर समतल बना सुनीता जैन पुरूष का विरोध पतीली में सींझते चावल की खदबदाहट की तरह करती हैं। इनका विरोध न उफनकर गीरता है और न ही शांत होता है।

“वह अभी तक वहीं बैठी है

जिसके संग

माँ ने बचपन में

भाँवर फेरी थी,

नहीं ! नाक में

नकेल गेरी थी”।

-(जैन, सुनीता. सुनीता जैन : अब तक 6, कविता 4. पृ.14. (सीधी कलम सधे न))

इनकी भाषा को खदबदाती भाषा भी कह सकते हैं।

सुशीला टाकभौरे की जमीनी समस्याएँ आसमान तक कौंधती हैं। सहज बोलचाल की भाषा विश्वास, आस्था, चरित्र, ओट, घूँघट, सूरज आग का गोला, झोपड़ा, कपाट, निरीह, तिमिरघनकूप, कनक, कामिनी, कुलबुलाना आदि इनकी शब्द सम्पदाएं ही इनकी भाषा को विशिष्ट बनाती हैं। इनकी कौंधती भाषा की व्यंगात्मकता पाठक के दिलों-दिमाग में कौंधती रहती हैं। सुशीला कौंधती और कड़कती हैं तो निर्मला आसमान से ज्वाला बनकर बरस जाती हैं।

निर्मला पुतुल आदिवासी कवयित्री होते हुए भी आदिवासी स्त्री की व्यथा के साथ-साथ समस्त स्त्री-भावनाओं को अत्यंत कोमलता से उभारती हैं, किन्तु पुरूषसत्ता तथा अत्याचार के विरूद्ध ज्वालामुखी की तरह फूट पड़ती हैं।

“पर याद रहे/ नहीं टूटूँगी इस बार/ बिखरूँगी नहीं तिनके की भाँति/ तुम्हारे भय की आँधी से

अबकी फूटेगा नहीं मेरा सिर/ चकनाचूर हो जाएँगे बल्कि / तुम्हारे हाथ के पत्थर”

-(पुतुल, निर्मला. नगाड़े की तरह बजते शब्द. अनु. अशोक सिंह. पृ. 90-91)

कात्यायनी का प्रेम और विरोध दोनों ही दो टूक भाषा में प्रकट करती हैं। संस्कृतनिष्ठ शब्दावली और शब्दों की मितव्ययिता के कारण इनकी भाषा काफी क्लिष्ट जान पड़ती है, किंतु गद्यात्मक शैली में लिखा काव्य अत्यंत सहज और सरल हैं। कविता को खारे जल में धोती कविता वाचक्नवी खनखनाती भाषा का प्रयोग करती हैं तो नेहा शरद अपनी मृदुता के साथ ही विरोध और प्यार दोनों व्यक्त करती हैं । अत: अनामिका कहती हैं- “हाशिए पर रहने वालों की भाषा हमेशा ही अधिक जीवंत, रंग-रंगीली और ठस्सेदार होती है। जो भी वर्ग-वर्ण, लिंग- एक श्रोता की स्थिति में विधेय स्थान पर, अवरूद्ध और उपभोग होते हैं- पता नहीं किन स्रोतों से, क्षतिपूर्ति सिद्धांत के अनुकूल उनकी भाषा में एक अलग तरह की रवानी, तेजस्विता और अनुगूंज खचाखच समा जाती है”।

-(अनामिका. कविता में औरत. पृ.28)

जिस प्रकार आलोचकों ने कवियित्रियों की भाषा को अपरिपक्व कहकर विलगा दिया था, उसी प्रकार लगता है कि कवियित्रियों ने अपनी स्त्रीत्व को शक्ति बना स्त्री-भाषा से ही भाषा के प्रति एक आंदोलन खड़ा कर दिया है। विलगाओ... देखे कहाँ तक विलगाते हो..? हम तुम्हारा मूँह तोड़कर नहीं बल्कि अपने दायरे में रहकर और अपने औरतपने से ही लड़ेंगे। जैसे इन्होंने हठ ठान ली हो औरतपन को गाली बनाने को बजाय शक्ति बनायेंगी। देखते हैं दुनियाँ अब और कौन सी नई गाली रचती है..? जलते चूल्हे को कितना बुझाओगे, बुझने के बाद अपनी भाषा गरमी से गोईठा भी सेंक सकती है। और अगर बुझ गई तो तुम लोग अपना भात भी किस पर पकाओगे ?... सोचो और सोचते रहो...।

निष्कर्षत: कह सकते हैं कि साठोत्तरी कवयित्रियों की एक अलग ही भाषा-संसार है, जिसमें भाव है, प्रेम है, दर्द है, ललकार भी है। समस्या है और समस्या से मुक्ति पाने का रास्ता भी है, जीवन है, प्रकृति है, प्यास है, आस है, एहसास है, आभास है, दुख का रोना रोया किंतु दुख से उबरने की हिम्मत भी है, ज़मीन रहते हुए आसमान में उड़ने की चाहत भी है। गर्भ से लेकर बिस्तर तक, चौका से लेकर चौखट तक, चौखट से लेकर भूमंडलीकरण तक और हासिए लेकर मुख्यधारा तक स्त्री-भाषा अपनी प्रकृतिगत कोमलता के साथ-साथ लहलहाती ज्वलंत भाषा है।