मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

Vyathaa

                       व्यथा
सखी,
     काश ! मैं व्यथा की कथा सुना पाती.
     स्वतन्त्र जगत की परतंत्र कहानी
     कुटुंब निति कह पाती,
     काश! मैं व्यथा की कथा सुना पाती.

चूड़ी कंगन पायल झूमके, बाँध गए इहलोक
सिंदूर बिंदी मंगलसूत्र, बन गए परलोक
सास श्वसुर ननद जिठानी
          बन गया दिनचर्या
पति विपत्ति बन बैठा
          जिस समय से परिणय हुआ.

     प्रहरी बन गए गृह निवासी
     अछूत हो गए जेष्ठ पुरुष जन
     देवर बालक बन गया भाभी का
     पति चला देश दुरन.

          चौकठ लाँघ सके ना घर की
          मुरझाई फूल बन उपवन की
          कठपुतली बन नाचे दुल्हन
          दुषः दिन हुए विरहिन की,

    परम्पराएं बन गईं रोगिणी
    उसूल हो गया जाली
    संवेदनाएं यांत्रिक हो गईं
    रस्में हो गईं दिवाली
    प्रेम दिखावा बन बैठा
    ह्रदय हो गया खाली,

जी ऐसा जल गया सखी अब
     घाव न भर पाए,
     मंगलसूत्र से अच्छा फंदा
     पर्दे से अच्छा कालकोठरी
     ब्याह से अच्छा आजीवन
           कारावास चुन लेती,
सखी,
     काश ! मैं व्यथा की कथा सुना पाती.